उत्तराखंड के विश्व कोष डा. शिव प्रसाद डबराल

उत्तराखंड के विश्व कोष डा. शिव प्रसाद डबराल
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प्रशांत मैठाणी

देवों और मनीषियों की भूमि उत्तराखंड का इतिहास जितना समृद्ध है उतना ही रोचक भी है। चाहे रामायण हो या पांडव हर काल में यहां का इतिहास अत्यंत ही समृद्ध रहा है। अनेक देव, ऋषि, मनीषी, गण, गंधर्व का यहां के इतिहास से जुड़ाव रहा है। राज्य के इसी इतिहास को कलमबद्ध करने का सबसे ज्यादा श्रेय वह हमारे सबके गौरव स्व० डॉक्टर शिव प्रसाद डबराल को जाता है। इसी ख्याति के कारण इन्हें उत्तराखंड का इनसाइक्लोपीडिया या चारण की उपाधि दी गई है।

डा. डबराल का जन्म 12 नवंबर 1912 को ग्राम गहली (पौड़ी गढ़वाल) में हुआ था। इनके पिता का नाम स्वर्गीय श्री कृष्ण दत्त डबराल और माता का नाम स्व० भानुमति डबराल था। पिता कृष्ण दत्त पेशे से शिक्षक थे। शिव प्रसाद डबराल जी ने मात्र नौ वर्ष की आयु में ही लेखन कार्य शुरू कर दिया था, उनकी वह रचना जन्माष्टमी 1929 में प्रकाशित हुई थी, इसकी रचना डबराल जी ने मेरठ के प्रसिद्ध मेले नौचंदी मेले में लोगों के बांटने के लिए की थी। शिव प्रसाद डबराल जी डी.ए.बी. कॉलेज दुगड्डा में 1948 में प्रधानाचार्य के कार्यरत हुए और 1975 में सेवानिवृत होने तक प्रधानाचार्य रहे थे।

इसी बीच उन्होंने पीएचडी की। पिछली सदी के उत्तरार्द्ध में डबराल जी ने जिस लेखन कार्य को शुरू किया था वह उनका जीवन पर्यंत चलता रहा। प्राप्त जानकारी के अनुसार उन्होने कुल 59 किताबें लिखी हैं। उनकी कृतियां राज्य के इतिहास के सबसे प्रमाणिक जानकारी देते हैं। डबराल जी ने मलारी और मालिनी दो सभ्यताओं पर बहुत लिखा है, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी, कि इन दोनों सभ्यताओं की खोज का श्रेय डबराल जी को ही जाता है।

दुग्गड़ा को अपनी कर्मस्थली बनाकर राज्य के इतिहास पर जो 25 किताबें डबराल जी ने लिखी वह अत्यंत ही दुर्लभ और प्रमाणिक जानकारी देते हैं। डबराल जी ने पूरा जीवन सरस्वती पूजा में ही निकाला और वे मां सरस्वती के मानस पुत्र थे। उनका पूरा जीवन पहाड़ों, गाढ़ गढ़ेरों में गुजरा, हिमालय पर्वत की ऊंचाई से लेकर शिवालिक की तलहटियों, कंदराओं, भावर, तराई को शिव प्रसाद डबराल जी ने नापा। उनकी यह अगम यात्रा अनवरत चलती रही। उनकी रचनाओं को पढ़कर लगता है अभी राज्य के समृद्ध इतिहास के विषय में हमें रत्ती भर भी जानकारी नहीं। उनके लिखी इतिहास की किताबों में राज्य की बहुत दुर्लभ जानकारियां उपलब्ध हैं। चाहे राज्य का प्रागैतिहासिक काल हो या ऐतिहासिक, चाहे कत्यूरी हो या मध्यकाल में चंद और पंवार वंशों का राज हो, या गोरखाल्यि, या ब्रिटिश शासन, रामायण और बुद्ध निर्वाण उन्होंने राज्य के लगभग हर हिस्से पर गहन विश्लेषण कर स्पष्ट और अत्यंत ही दुर्लभ पुस्तकें लिखी है।

डॉ. शिव प्रसाद डबराल के निरंतर अन्वेषण, लेखन, प्रकाशन कार्यों के लिए उन्हें बहुत कष्ट भी सहने पड़े थे। अक्सर यह होता भी है। डबराल जी ने यहां के पौराणिक और पुरातन सभ्यताओं की चर्चा बहुत ही सरल शब्दों में की हैं। 50 के दशक में डॉक्टर शिव प्रसाद डबराल ने मलारी सभ्यता पर अन्वेषण किया, वहां की समाधियों पर शोध और लेखन कार्य किया तो 60 के दशक में मालनी सभ्यता पर शोध कार्य कर अभिलेखों को एकत्रित किया। मोरध्वज हो या पांडुवाला या ऋषिकेश का वीरभद्र इन पर पुरातात्विक सर्वेक्षण और उन पर लेखन कार्य डॉक्टर शिव प्रसाद डबराल जी ने किया।

1955 से 65 के बीच उनके बहुत लेख कर्मभूमि में प्रकाशित हुए। डॉक्टर शिव प्रसाद डबराल जी अपनी पुस्तकों में लिखते हैं कही दफा उन्हें लेखन कार्य के लिए आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा, पर वे लिखते हैं अब 76 वर्ष की आयु में मनुष्य को जो भी करना हो तुरंत कर लेना चाहिए। दो ही साधन थे, भूमि बेच देना और पांडुलिपि को संक्षिप्त करना, पर मैंने कुछ धनराशि की अपनी भूमि बेचकर रकम जुटाई और लेखन अनवरत रखा।

अब तो उनकी रचनाएं मिलना ही दुर्लभ हैं। यह समय की मांग है की डबराल जी की कालजई रचनाओं का पुनर्प्रकाशन होना चाहिए। डॉक्टर डबराल ने अपनी पुस्तक प्रागऐतिहासिक उत्तराखंड में अपनी धर्मपत्नी श्रीमती विशेश्वरी देवी का अत्यंत ही भावुक वर्णन किया है। डबराल जी लिखते हैं विश्वेश्वरी से मेरा विवाह 1935 में हुआ था, मेरे पूरे जीवन भर विशेश्वरी ने अपने प्राण रहते रहते सुख-दुख में मेरा साथ दिया है, डबराल जी लिखते हैं आज तक मैंने किसी भी पुस्तक या लेख में विश्वेश्वरी का वर्णन नहीं किया, किंतु आज उसके स्वर्गवास हो जाने के बाद थोड़े पृष्ठ लिखकर श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं।

डॉ. शिव प्रसाद डबराल ने श्रीमती विशेश्वरी देवी पर कुल 17 पृष्ठों में एक अत्यंत ही भावुक लेख लिखा है जिसको पढ़कर हर किसी की आंखें नम जायेगी। उनके यह उद्गार मुझे हर मां, पत्नी, पुत्री और नारी को समर्पित लगते हैं, विशेश्वरी जी के अनेक रूपों की चर्चा उन्होंने इस लेख में लिखा है, कैसे उन्होंने अपने बच्चों को भविष्य के लिए तैयार किया, जबकि शिव प्रसाद डबराल लिखते हैं कि मैं तो ज्यादातर लेखन और शोध हेतु यायावर घूमता ही रहता था, विशेश्वरी देवी ने अपने परिवार के साथ-साथ शिवप्रसाद डबराल के लेखन कार्य में भी उनका संपूर्ण सहयोग किया, शिव प्रसाद अपने बच्चों के सुंदर भविष्य का पूरा श्रेय श्रीमती विशेश्वरी देवी को ही देते हैं, जो कुछ डॉ. डबराल ने उनके विषय में लिखा है, उसको पूरा लिखा जाना तो संभव नहीं है किंतु जो लिखा है उसको पढ़कर मैं यही कह सकता हूं कि श्रीमती विश्वेश्वरी देवी एक उत्कृष्ट मां, पत्नी और नारी रही हैं।

वे अपनी इसी पुस्तक में जिक्र करते हैं की आज मेरे इस घर में 23000 से अधिक पुस्तकें उपलब्ध हैं। शिव प्रसाद डबराल ने अपने घर सरुडा (सरोड़ा) निकट दुगड्डा में “उत्तराखंड विद्या भवन” नाम से एक पुस्तकालय खोला था। जहां से अति दुर्लभ गढ़वाली, हिंदी साहित्य संपादन, प्रकाशन और पुनः प्रकाशन डॉक्टर शिव प्रसाद डबराल ने किए। उनके निधन के बाद यह पुस्तकालय जीर्ण शीर्ण हो गया था किंतु मुझे उनके पुत्र डॉ. शांति डबराल से जानकारी मिली है कि अब पुस्तकालय का जीर्णाेद्धार कर दिया गया है, लोगों का आना जाना लगा रहता है।

पिछले बरस वहां एक कार्यक्रम कर शिव प्रसाद डबराल का स्मरण किया गया और उनकी दुर्लभ रचनाओं का भी प्रकाशन किया जा रहा है। वास्तव में अगर देखा जाए तो डॉक्टर शिव प्रसाद डबराल केवल एक परिवार के नहीं थे उनका पूरा उत्तराखंड परिवार था, उन्होंने निस्वार्थ भाव और अगम साहस कर राज्य के दुर्लभ और पुरातन इतिहास हम सब के समक्ष रखा। डॉक्टर डबराल जी ने गढ़वाल शैली के महान चित्रकार एवं कवि मौलाराम की दुर्लभ पांडुलिपि ढूंढकर उन्हें लुप्त होने से बचाया। डॉक्टर शिवप्रसाद डबराल ने चालीस से अधिक साल तक हिमालय और उसके इतिहास पर शोध कार्य किया।

आज सरस्वती के उपासक डॉक्टर शिव प्रसाद डबराल जी चारण के पूरे परिवार ने आठ से अधिक डॉक्टर हैं। पूरे परिवार पर मां सरस्वती का वरद हस्त है। शिव प्रसाद डबराल के कनिष्ठ पुत्र डॉक्टर संतोष कुमार डबराल जी, पी०जी० कॉलेज ऋषिकेश में हमारे रसायन विज्ञान के शिक्षक रहे हैं। वे हमें बीएससी करने के दौरान जब पढ़ाते थे तो तब हमें यह ज्ञान ही नहीं था के ये इन ऋषि के पुत्र हैं, किंतु उनके ज्ञान और उनके पढ़ाने के तरीके में यह जरूर झलकता ये किसी ऐसे परिवार से हैं जो सरस्वती के उपासक हैं। पढ़ाई के उपरांत गुरुजी से एक दो मुलाकातें हुई तब मैने जिक्र किया था ।

वास्तव में डॉक्टर शिव प्रसाद डबराल का जीवन एक ऋषि और साधु का जीवन रहा है जिन्होंने हिमालय के कंदराओं के विषय में अनेक पुरातात्विक जानकारियां, उनको लिपिबद्ध करने को अपना मिशन बना लिया था और उनके इस ऋषित्व के कारण आज हम सब के सम्मुख एक दुर्लभ और लिपिबद्ध इतिहास है। वास्तव में डॉक्टर शिव प्रसाद डबराल उत्तराखंड के गौरव है और उनके इतिहास कार्य में किए गए शोध असाधारण हैं, उनके जीवन के विषय में यह पंक्ति मैं उनको समर्पित करूंगा।

वैभव-विलास की चाह नहीं, अपनी कोई परवाह नहीं
ऐसे ऋषि और हम सबके श्रद्धेय डॉक्टर शिव प्रसाद डबराल जी का 87 वर्ष की आयु में 24 नवंबर 1999 को निधन हो गया, आज उनके निधन के 25 वर्ष बाद भी उनकी रचनाओं की कुछ ही सुधी पाठकों के पास हैं। मैं और हम सब उनके उनके समृद्ध परिवार से विनम्र निवेदन करना चाहेंगे कि डॉक्टर डबराल जी के दुर्लभ रचनाओं का पुनर्प्रकाशन हो, ताकि हमारी और आने वाली पीढ़ी तक यह दुर्लभ जानकारियां साझा हो सके। पुरातात्विक खोज, इतिहास और साहित्य लेखन के क्षेत्र में डॉक्टर शिव प्रसाद डबराल जी चारण प्रातः स्मरणीय हैं। उनका पुण्य स्मरण चिरकाल तक होता

Tirth Chetna

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