कवि चंद्रकुंवर बर्त्वालः प्रकृति का नायाब कवि

कवि चंद्रकुंवर बर्त्वालः प्रकृति का नायाब कवि
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डा. नीतू थपलियाल

कवि चंद्रकुंवर बर्त्वाल को प्रकृति के चितेरे कवि, हिमवंत का कवि, काफल पाक्कू अमर गायक तमाम उपमाओं से पुकारा जाता है। वास्तव में कवि चंद्रकुंवर बर्त्वाल प्रकृति के नायाब कवि हैं। उनकी कविता बारहमासी, सभी ऋतुओं, समाज के विभिन्न आयामों का प्रतिनिधित्व करती हैं। उनकी कविताओं में जिससे जीवन बना हुआ है। वास्तव में चंद्रकुंवर बर्त्वाल प्रकृति के नायाब कवि हैं।
कहाँ मिलेगी मर कर इतनी सुन्दर काया,
जिस पर विधि ने है जग का सौन्दर्य लुटाया,
हरे खेत ये विजन वनों की बहती नदियाँ,
पुष्पों में फिरती भिखारिणी ये मधुकरियाँ,
कहाँ मिलेगी मर कर इतनी शीतल छाया,
कहाँ मिलेगी मर कर इतनी सुन्दर काया!

प्रकृति के चितरे कवि के ये शब्द उनकी अथाह पीड़ा को दिखा रहे हैं। चदं्रकुँवर बर्त्वाल ऐसे कवि हुए जिन्हें हिमवंत का कवि भी कहा जाता है। प्रकृति के चितरे कवि भी कहा जाता है। काफल पाक्कू अमर गायक भी कहा जाता है। प्रेमपुरी में रहने वाला एक कवि भी माना जाता है। उदाहरणस्वरूप इन पंक्तियों
में देख सकते हैं।

मुझे प्रेम की अमर पुरी में अब रहने दो!
अपना सब कुछ देकर कुछ आँसू लेने दो,
प्रेम की पुरी जहाँ रुदन में, अमृत -हजयरना,
जहाँ सुधा का स्त्रोत उपेक्षित सिसकी भरता,
जहाँ देवता रहते लालायित मरने को,
मुझे प्रेम अमर पुरी में अब रहने दो।

चंद्रकवुँर बर्त्वाल ऐसे कवि है जिनके अंदर अनेक कवि है।एक वो कवि है जो मधुर स्वरों से गीति काव्य रच रहा है। एक वो कवि है जो अपनी कविता से यथार्थ को दिग्दर्शित करा रहा हैं।

मुझको यह विष पीकर अमृत करना ही होगा!
इसी नरक को शुचि कर मुझको, स्वर्ण विरचना ही होगा!
भूली भटकी हुई नदी को भी सागर के पद पर
जा कर अपना सारा जीवन अर्पित करना ही होगा!
मेरे उर का सोना जो है दबा हुई मिटृी में उस
निकल बाहर,ज्वाला में पिघल चमकना ही होगा।
मु-हजय को यह विष पी-कर अमृत करना ही होगा।

इसके साथ ही उनकी कविताओं में प्रकृति का स्थानीय रुप भी नजर आता है । घर,गांव,मंदाकिनी,अलकनंदा,पहाड़ पर गिरती वर्षा, गाड़, गदेरे, घराट और जो काफल पाक्कू रट लगाती हुई चिड़ियाँ है, वो रहमासी के फूल,चींटी, गिलहरी, भूटिया कुत्ता इन पर अद्भुत रचनाएँ लिखते हैं। उनकी कविताओं में हिमालय है।

यहां बांझ पुराने पर्वत से, यह हिम सा ठण्डा पानी,

ये फूल लाल संध्या से भी, इनकी यह डाल पुरानी,
इस खग का स्नेह काफलों से, इसकी कूक पुरानी,
पीली फूलों का काँप रही, पर्वत की जीर्ण जवानी।

उनकी कविताओं में प्रेम है, मृत्यु है, और वर्षा है, उन्होंने प्रेम को बहुत गहराई से जिया है। हिमालय को बहुत नजदीक से देखा है और मृत्यु के प्रतिउनकी कविताओं में एक दार्शनिक भाव है।

मैं मर गया, चलो गंगा के तट पर मु-हजये जला आएँ
मैं मर गया, भाग्य पर मेरे आँसू चलो कहा आएॅ।
तोड़ दिया मैंने जीवन से, भले-ंउचयबुरे से नाता
मैं न रहा अब, चलो कहीं पर मेरी याद भुला आँए।

चन्द्रकुँवर बर्त्वाल ने अनेक भावों को अपनी कविता में अभिव्यक्त किया है। प्रकृति को सजीव रुप में देखते हुए प्रकृति के सूक्ष्म से सूक्ष्म रुप को कविता में स्थान दिया। इसलिए उनकी कविताओं में प्रकृति का अलौकिक सौर्न्दय मदमस्त होकर छलछलाता है।
हिमालय दर्शन, चीड़ के जंगल, देवदारु, नदियां, हिमालय का सूर्यास्त जैसी अनगिनत कविताओं में प्रकृति की सुंदर झांकी बार-ंबार झंकृत होती है। मात्र 28 वर्ष का जीवन जीकर हिन्दी को अमर काव्य निधि सौंप कर अमर पुरी में चले गए।

चन्द्रकुँवर बर्त्वाल जी की कविताओं पर पी बी शैली तथा जॉन कीट्स का प्रभाव साफ झलकता है। मगर, हिन्दी साहित्य में उनको वो स्थान नही मिल पाया जो उस समय के अन्य छायावादी कवियों को मिला।

लेखक- गवर्नमेंट कॉलेज में हिन्दी प्राध्यापिका हैं।

Tirth Chetna

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