संस्कृत और ज्योतिष के प्रकांड विद्वान स्व. मुकुंद राम बड़थ्वाल दैवेज्ञ”

संस्कृत और ज्योतिष के प्रकांड विद्वान स्व. मुकुंद राम बड़थ्वाल दैवेज्ञ”
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प्रशांत मैठाणी।

अनादि काल से ही गंगा सलाण या कहें ढांगू क्षेत्र (तल्ला ढांगू, मल्ला ढांगू और विछला ढांगू) की भूमि ज्ञानियों, विद्वतजनों, वीरों की जन्मभूमि और कर्मभूमि भूमि रही है। यहां ज्योतिष, आयुर्वेद, कर्मकांड, तंत्र मंत्र और अन्य विषयों के सिद्धहस्त जन्म ले चुके हैं, जब कभी ढांगू क्षेत्र के चर्चित विद्वत जनों की बात होती है तो उनमें सबसे ऊपर मुकुंद राम बड़थ्वाल दैवेज्ञ जी का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है।

दैवेज्ञ के नाम से अलंकृत संस्कृत के प्रकांड विद्वान और महानतम ज्योतिषियों में से एक स्व. मुकुंद राम बड़थ्वाल का जन्म 8/9 नवंबर 1887 को अपने नाना के घर मित्रग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम रघुवर दत्त बड़थ्वाल था, वह स्वयं संस्कृत और ज्योतिष के प्रकांड विद्वान थे।

दैवेज्ञ की प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता से ही हुई, उसके उपरांत वे अध्ययन / शिक्षा के लिए देवप्रयाग, हरिद्वार और लाहौर तक गए। कहा जाता है की उन्हंे नौ वर्ष की आयु में ही गणित और अन्य विषयों का बहुत गूढ़ ज्ञान प्राप्त हो गया था। अध्ययन के उपरांत देवप्रयाग में संस्कृत और ज्योतिष को अपना कर्म क्षेत्र बनाया। एक समय के उपरांत वे अपने घर से ही शिक्षा का प्रसार एवं ज्योतिष साधना का कार्य करने लगे, जिसे आज मुकुंद आश्रम के नाम से जाना जाता है।

मुकुंद आश्रम प्राचीन चार धाम पैदल मार्ग यात्रा पर कांडी चट्टी से कुछ एक किलोमीटर पहले है। जब चार धाम यात्रा पैदल मार्ग पर यात्री चलते थे तो कहीं मनीषी इस आश्रम में आकर मुकुंद जी द्वारा लिखित किताबों का अध्ययन किया करते थे। दैवेज्ञ जी द्वारा ज्योतिष के एक लाख से अधिक श्लोक और 45 महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की गई जिनमें से अभी आधे ही ग्रंथों का प्रकाशन किया जा सका है, बाकी अप्रकाशित हैं।

दैवेज्ञ जी के कुछ साहित्य का प्रकाशन उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा किया गया। संस्कृत और ज्योतिष के विद्धान संस्कृत साहित्य, ज्योतिष आदि की रचनाएं प्रमाणिक, असाधारण है, उनकी रचनाओं में सर्वश्रेष्ठ मुकुंद कोश बताई गई है जिसके 105 से अधिक खंड हैं। मुकुंद कोश में संस्कृत साहित्य, ज्योतिष और आयुर्वेद शास्त्र को समावेशित किया गया है।

पूर्व सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री भक्त दर्शन ने अपनी पुस्तक गढ़वाल की दिवंगत विभूतियों में मुकुंद राम जी के इस ग्रंथ (मुकुंद कोश) के विषय में लिखते हैं कि जब केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के सचिव द्वारा इस ग्रंथ की पांडुलिपि देखी गई तो उन्होंने स्तब्ध होकर कहा था कि – इतना वृहद कार्य एक संस्थान द्वारा ही संभव है।

इस पर मुकुंद राम जी ने कहा – वह व्यक्ति अथवा संस्थान स्वयं आपके समक्ष है। उत्तराखंड के चारण के नाम से प्रसिद्ध डॉ. शिव प्रसाद डबराल जी ने अपनी पुस्तक टिहरी गढ़वाल का राज्य इतिहास भाग- 2 में श्रद्धेय मुकुंद दैवज्ञ की रचनाओं को अत्यंत दुर्लभ कहा गया, दैवज्ञ के कही ग्रंथों पर उनके शिष्य चक्रधर शास्त्री द्वारा हिंदी में टीका लिखी। हिंदी टीका ने इसे सर्वसाधारण के लिए बोधगम्य बना दिया।

डा. डबराल लिखते हैं कि मुकुंद दैवज्ञ प्राचीन काल के ऋषियों के समान अपने गांव के पास मुकुंद आश्रम में त्याग, तपस्या, अध्ययन और मनन का जीवन व्यतीत करते थे. डबराल जी ने दैवज्ञ जी का ज्योतिष तत्व को महत्वपूर्ण ग्रंथ बताया है। गणित और फलित दोनों के लिए यह ग्रंथ कल्पतरू है. अब तक प्रकाशित -अप्रकाशित लगभग सभी महत्वपूर्ण ज्योतिष ग्रंथों का सार इस ग्रंथ में आ गया है।

मुकुंद कोष के अतिरिक्त दैवज्ञ जी द्वारा कई सारणीयों की रचना की गई, विद्वानों द्वारा इनकी बहुत प्रशंसा की गई। इन सारणीयों के कारण पंचांग का प्रयोग अनावश्यक सा हो गया था . इन्होंने 11 टीका ग्रंथ भी लिखें जिन्हें पाठ्य पुस्तकों की तरह पढ़ाया जाता है।

ज्योतिष तत्त्वम में 7500 से अधिक श्लोक दिए गए हैं. दैवेज्ञ जी द्वारा संस्कृत साहित्य, ज्योतिष आदि के ऐसे ग्रंथों रत्नों की रचना की गई जो अत्यधिक दुर्लभ हैं और इन्हीं कारणों से दैवेज्ञ जी और उनकी रचनाएं अमर हो गई। मुकुंद जी के कुछ प्रकाशित ग्रंथ पंचांग मंजूषा, आर्य सप्तति, मुकुंद पद्वति, दशामन्जरी, ज्योतिषशास्त्र प्रवेशिका, ज्योतिषतत्त्वं, ज्योतिष रत्नाकर, भाव मन्जरी, लिंगानुशासन वर्ग आदि एवम अप्रकाशित ग्रंथ जातक सार, आयुदार्य संग्रह,मुकुंद विलास सारिणी, कोतकीयगृह गणितम, पद्वति कल्पवल्ली, मुकुंदकोश, मुकुंद विनोद सारिणी आदि हैं।

दैवेज्ञ जी द्वारा ज्योतिष के लुप्त प्राय ग्रंथों को पुनः प्रकाश में लाना मुख्य उद्देश्य माना जाता है। उन्होंने कभी भी फलित ज्योतिष का व्यवसाय नहीं चलाया। अगर हम बात करें ग्रंथ रचना के अतिरिक्त तो दैवेज्ञ जी एक महान शिक्षक भी रहे हैं।
उनके छात्रों में चक्रधर जोशी सबसे सर्वाेत्तम और उत्कृष्ट छात्र निकले, जिनके द्वारा 1945 में देवप्रयाग में नक्षत्र वेधशाला की स्थापना की। गुरु और शिष्य की यह जोड़ी गुरु शिष्य परंपरा की महानतम और उत्कृष्ट उदाहरण है. ऐसे महान गुरु और शिष्य बहुत विरले ही मिलते हैं।

आज जो मुकुंद आश्रम हम देखते हैं 1960 के आसपास बना। इतने महान लेखक और विराट व्यक्तित्व होने के बाद भी दैवेज्ञ का व्यक्तिगत जीवन सदैव अभावों से भरा रहा, सरस्वती पुत्र दैवेज्ञ द्वारा अपने ज्ञान को कभी प्रदर्शित नहीं किया गया। मुकुंद द्वारा विष्णु पुराण में उल्लेखित श्लोक का तत्कर्म यन्न बंधाय सा विद्या या विमुक्तयेष्के अर्थ को सार्थक किया।

हमारे देश में प्राचीन काल से ही ऋषि मुनियों ने ‘सा विद्या या विमुक्तये का ज्ञान देकर शिक्षा के महत्ता पर बल दिया था। मुकुंद जी सदैव संस्कृत और ज्योतिष शिक्षा को समर्पित रहे, उन्होंने अपना सब कुछ शिक्षा को समर्पित कर दिया था। मुकुंद ज्यादातर समय लेखन में व्यस्त रहते थे, वह कभी भी विद्या को व्यवसाय के रूप में नहीं ले गए। दैवेज्ञ जी बहुत ही स्वाभिमानी व्यक्ति थे।

इसी कारण कहीं बुजुर्गों से सुनने को मिला कि उनका स्वयं का व्यक्तिगत जीवन अभाव और संघर्षों से भरा हुआ रहा।
उनके द्वारा लिखे गए दुर्लभ ग्रंथों और उनकी कठिन साधना के फल स्वरुप केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने उनके कुछ ग्रंथों का प्रकाशन किया। भारतीय ज्योतिष अनुसंधान संस्थान ने उन्हें अभिनव वराह मिहिर की उपाधि से अलंकृत किया।

वराह मिहिर स्वयं संस्कृत के प्रकांड और महान विद्वान रहे हैं जो चंद्रगुप्त के नवरत्नों में से एक थे. लगा सकते हैं कि आधुनिक वराह मिहिर की उपाधि यदि दैवेज्ञ जी को दी जाए, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। ज्योतिष के मर्मज्ञ आचार्य मुकुंद राम जी को 12 अप्रैल 1967 को अभिनव वराहमिहिर की उपाधि दी गई, यह उपाधि उन्हें तत्कालीन उत्तर प्रदेश के राज्यपाल एम0 चिन्ना रेडी द्वारा दी गई।

लेखक उत्तराखंड के इतिहास, भूगोल, संस्कृति आदि के जानकार हैं।

Tirth Chetna

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