उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र में एक नहीं कई जोशीमठ
सुदीप पंचभैया
देवभूमि उत्तराखंड के कई छोटे-बड़े नगर जोशीमठ बनने की कगार पर हैं। अनियोजित विकास इसकी प्रमुख वजहों में शामिल है। सिस्टम की नासमझी से मुश्किलें और बढ़ रही हैं। अब जरूरत और नगरों को जोशीमठ बनने से बचाने की है। इस पर गंभीरता से काम होना चाहिए।
आदिधाम श्री बदरीनाथ, श्री हेमकुंड साहिब और विश्व प्रसिद्व फूलों की घाटी का प्रवेश द्वार और स्कीइंग के शानदार केंद्र जोशीमठ का अस्तित्व खतरे में है। पूरा नगर गहरी-गहरी दरारों से पट चुका है। कोई भी ट्रीटमेंट शायद ही इसे पहले जैसा कर सके।
पहाड़ी क्षेत्र में धंसती जमीन की गहराई और चौढ़ाई बढ़ने के क्रम को लंबे समय के लिए थामना नामुकिन होता है। सिस्टम के दावों के बावजूद लोग इसे समझ रहे हैं। भूगर्भवेत्ता, सिविल इंजीनियर्स और पहाड़ को जीने वाले लोग भी इस बात को अब पूरी तरह से स्वीकारने लगे हैं। समझदारी की बात ये है कि इस स्वीकारोक्ति को केंद्र में रखकर आगे बढ़ने की जरूरत है।
जल विद्युत परियोजना के निर्माण में हुई चोटों से घायल हुए स्थानीय लोगों के आशियाने के बारे में गंभीरता दिखानी होगी। खेती-किसानी से लेकर पर्यटन/तीर्थाटन पर आधारित रोजगार का सवाल भी है। इसे एड्रेस किया जाना चाहिए। साथ ही जोशीमठ बनने की कगार पर पहुंच चुके पर्वतीय क्षेत्र के तमाम नगरों और कस्बों पर गौर करने की जरूरत है। उक्त नगरों अनियोजित विकास के अंधानुकरण को रोकना होगा।
इसके लिए न तो किसी रिपोर्ट की जरूरत है और न किसी प्रकार के सर्वे की। पूर्व की तमाम रिपोर्ट भी हैं और सर्वे भी। इन रिपोर्ट की बातों पर गौर करना होगा। इसके मुताबिक व्यवस्थाएं बनानी होंगी। नई रिपोर्ट और नए सर्वे आपदा के ताजे घावों को भुलाने भर का काम करते हैं। सिस्टम अक्सर ऐसी प्रैक्टिस करता भी रहा है। ऐसी प्रैक्टिस से कुछ ही महीने बाद फिर से विकास को अनियोजित मॉडल दिखने लगता है। वैज्ञानिकों के पास ऐसा कुछ नहीं है कि वो जोशीमठ को बचा दें।
वैज्ञानिकों के पास कुछ साल पूर्व तक जरूर बताने के लिए कुछ था। सलाह थी, सुझाव थे। समय-समय पर इससे सरकार तक भी विभिन्न माध्यमों से पहुंचाया जाता रहा है। मगर, तब सरकार ने भी नहीं सुनी और लोगों ने भी जरूरत महसूस नहीं की। सिस्टम को ऊर्जा प्रदेश बनाना था और आम लोग विकास के बाजे की धुन में रम गए।
बहरहाल, अब पहला काम ये होना चाहिए कि भारी निर्माण को लेकर लोगों को जागरूक किया जाए। निर्माण से पहले मौके के हालातों का भौगोलिक आंगणन जरूर हो। ताकि कोई नगर जोशीमठ जैसे हालातों से रूबरू न हो। लोगों की जीवन भर की कमाई से बनाए गए घर यूं ही न दरक जाएं।
ये बात अब किसी से छिपी नहीं है कि श्रीनगर, नैनीताल, भटवाड़ी, गुप्तकाशी, पोखरी, गोपेश्वर, घिमतोली, धारचूला ऐसे हालातों की टॉप पर हैं। ऋषिकेश, हरिद्वार में गंगा के तटों और अन्य नदी नालां की चौढ़ाइयों के सिमटना भी बड़े खतरे की ओर इशारा है। खास बात ये है कि ये सारे खतरे सिस्टम की नाक के नीचे ही आकार ले रहे हैं।
हालात ये हैं कि कई मौकों पर सिस्टम इस अनियोजित विकास की एडवोकेसी तक करने लगता है। अब चलकर ये एडवोकेसी प्राकृतिक तौर के साथ-सामाजिक तौर पर भी राज्य के लिए मुश्किलें खड़ी करती देखी गई हैं और देखी जा रही हैं।