जनता के विधायक/सांसद राजनीतिक दलों के हो गए
जनता के साथ खड़े नहीं दिख रहे जनप्रतिनिधि
तीर्थ चेतना न्यूज
ऋषिकेश। जनता का विधायक/सांसद और तमाम छोटे-बड़े जनप्रतिनिधि जनता के नहीं रह गए हैं। उक्त सभी अब राजनीतिक दलों के हो गए हैं। यही वजह है कि जनप्रतिनिधि जनता के साथ खड़े नहीं दिख रहे हैं।
लोकतंत्र में जनता जनार्दन होती है। लोक के कई धड़ों में बंटने और आदि.. आदि तरह से बंट जाने से लोकतंत्र दल तंत्र के रूप अख्तियार कर लेता है। ऐसा तंत्र जहां नेता को जनता की जरूरत कम और राजनीतिक दल की जरूरत अधिक है।
नेताओं में ये माइंडसेट बन चुका है कि जनता की जरूरत पांच साल में एक बार और एक दिन होती है। लोक के कई धड़ों में बंटने से ये दिन भी अंक गणित की भेंट चढ़ गया है। यही वजह है कि अब नेता जनता की खास चिंता नहीं कर रहे हैं।
कम से कम जनता के साथ नेता खड़े नहीं दिखते और नहीं ही होते हैं। वो जनता पर अपने दल का विचार और एजेंडे को थोपने का काम कर रहे हैं। परिणाम दल तंत्र जनता पर भारी पड़ रहा है। हाल के सालों में देश भर में जनता के स्तर से हुए तमाम आंदोलनों में जनप्रतिनिधि गायब रहे।
अपने आस-पास के छोटे बड़े जन आंदोलनों को देख लीजिए जनप्रतिनिधि और उनके समर्थक आंदोलन को हतोत्साहित करते दिख जाएंगे। जनप्रतिनिधियों को जनता के बीच से स्वतस्फूर्त मामले नकली लगते हैं।
सड़क, पुल, पानी, हॉस्पिटल आदि की मांग जनता के स्तर से उठने पर जनप्रतिनिधि मुंह मोड़ते हैं। दरअसल, अब जनता का विधायक/सांसद जनता से अधिक राजनीतिक दलों के हो गए हैं। वो दलों के भरोसे पर खरा उतरने के लिए काम करते हैं। दल के नेता खुश तो दुबारा टिकट पक्का।