भारतीय राजनीति में गैरजरूरी मुददों का जोर

भारतीय राजनीति में गैरजरूरी मुददों का जोर
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सुदीप पंचभैया

भारतीय राजनीति गैरजरूरी मुददों की मोहताज हो गई है। स्थिति ये है कि चुनावी राजनीति के लिए तो गैरजरूरी मुददे उत्प्रेरक का काम कर रहे हैं। राजनीतिक दल/ नेता चुनावी वैतरणी पार करने के लिए गैरजरूरी मुददों का उपयोग कर रहे हैं।

लोकतंत्र में राजनीति का लक्ष्य सत्ता ही होती है। इसके माध्यम से लोकल्याण की बात होती है। भारतीय संविधान में भी ऐसा ही कुछ वर्णित है। संविधान के लागू होने के बाद से ही राजनीतिक व्यवस्था लोक कल्याण की माला जप रही है। बावजूद इसके सच्चाई ये है कि 75 सालों का सिंहावलोकन किया जाए तो हम पाएंगे कि कई क्षेत्रों खासकर सामाजिक क्षेत्र में आशातीत प्रगति नहीं हुई है।

दरअसल, भारतीय राजनीतिक व्यवस्था विकास/ जन की बेहतरी/ बराबरी के अधिकारों को धरातल पर सही से लागू नहीं कर सकी है। इसे राजनीतिक व्यवस्था की असफलता माना जा सकता है। राजनीतिक व्यवस्था में इसको लेकर इच्छा शक्ति का भी साफ अभाव दिखता है। जन पर हर तरह से हावी हो चुकी राजनीतिक व्यवस्था, राजनीतिक दल इसे मानने को तैयार नहीं हैं।

राजनीतिज्ञों को लोकतंत्र की मजबूती के लिए राजनीतिक व्यवस्था की सबसे उपयुक्त लगती है। जनता से चुनी गई राजनीतिक व्यवस्था में ऐसा होना भी चाहिए। मगर, ऐसा है नहीं। लोग सरकार जरूर चुन रहे हैं। मगर, सरकारें लोक के हिसाब से काम नहीं कर पा रही हैं। सरकारों में राजनीतिक दलों के विचार और वोट की फसल को लहलहाने वाले मुददे आ जाते हैं। इससे राजनीति कई तरह से दूषित हो रही है और इसका खामियाजा देश के लोक को कई तरह से भुगतना पड़ रहा है।

हर पांच साल में देश की बड़ी पंचायत यानि सांसद, राज्य विधानसभा, निकाय और त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में विकास की बात होती है। मगर, विकास और लोक की बेहतरी की बात बहुत जल्द ही चुनावी मैदान से हट जाती है। इसका स्थान ले लेते हैं गैरजरूरी मुददे। इन मुददों को मीडिया में भी खूब स्थान मिलता है।

लोगों के मन मस्तिष्क में मुददों को इस कदर डाला जाता है कि चुनाव के समय वो विकास के बजाए गैरजरूरी मुददों पर रिएक्ट करने लगते हैं। इससे नेताओं को सीधे-सीधे लाभ मिलता है और लोग गैरजरूरी मुददों पर वोट कर एक तरह से ठगे जाते हैं।

दरअसल, विभिन्न स्तरों पर विकास के हाल देख चुकी जनता जनार्दन जब इस पर रिएक्ट नहीं करती तो राजनीतिक दल/नेता गैरजरूरी मुददों को उछालते हैं। इससे उनका काम भी बन जाता है। ये मुददे, धर्म, जाति, विचार, समेत तमाम विषयों पर आधारित होते हैं। चुनावी वैतरणी पार कराने में ये मुददे विकास के मुददे से अधिक मददगार साबित होते हैं।

हर स्तर के चुनाव में ऐसा देखा और महसूस किया जा सकता है। भारतीय राजनीति में ये अजीब बात भी देखने को मिलती है कि लोग अपने लिए जनप्रतिनिधि चुनने के बजाए राजनीतिक दल को चुन रहे हैं। राजनीतिक दल जनप्रतिनिधि पर खास मुददों को लेकर व्हीप लगा देते हैं। कहा जा सकता है कि खास मुददों पर जनता द्वारा चुना गया जनप्रतिनिधि को गूंगा बना दिया जाता है। इसे पार्टी लाइन कहा जाता है।

कुल मिलाकर भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में गैरजरूरी मुददे हावी हो चले हैं। विकास की बात करते-करते राजनीतिक दल/नेता गैरजरूरी मुददों के माध्यम से वोट पाना चाहते हैं। राजनीतिलक दलों/नेताओं की इस प्रैक्टिस से भारतीय लोकतत्र में जिस आंतरिक मजबूती की अपेक्षा की जाती है शायद वैसा है नहीं।

Tirth Chetna

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