देवभूमि उत्तराखंड में तीर्थाटन और पर्यटन का घालमेल

देवभूमि उत्तराखंड में तीर्थाटन और पर्यटन का घालमेल
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  • सुदीप पंचभैया
  • चारधाम यात्रा शुरू होने के अवसर पर उमड़ रही भीड़ से सरकार इतरा सकती है, कारोबारी इतरा सकते हैं। देवभूमि उत्तराखंड के लिए इसमे इतराने जैसा कुछ नहीं है। दरअसल, ये भीड़ डराने लगी है। आशंका है कि कहीं तीर्थाटन और पर्यटन के घालमेल से देवभूमि उत्तराखंड दोनों में चूक न जाए। जानकार भी इस प्रकार की आशंकाएं व्यक्त करने लगे हैं।देवभूमि उत्तराखंड की पहचान तीर्थाटन से है। यहां के मठ/मंदिर लोगों को पवित्र भाव से आकर्षित करते हैं। आदिधाम श्री बदरीनाथ को भू-बैकुंठ धाम तक कहा जाता है। इसके बावजूद अब तीर्थाटन के प्रभाव पर पर्यटन हावी हो चला है। भू-बैकुंठ धाम श्री बदरीनाथ में भी इसे महसूस किया जा सकता है।

    दरअसल, व्यवस्था तीर्थाटन और पर्यटन को अलग-अलग तरीके से हैंडिल करने में नाकाम रही है। सिस्टम ने कभी इस पर गौर भी नहीं किया। तीर्थाटन और पर्यटन में हो रही इस गढमढ से देवभूमि उत्तराखंड को खासा नुकसान हो रहा है। राज्य गठन के बाद से हालात और बिगड़ गए हैं। जबकि उम्मीद थी कि राज्य गठन के बाद देवभूमि की इसके मुताबिक पहचान को और व्यापक बनाने के प्रयास होंगे। मगर, ऐसा नहीं हुआ। अब तो ये आशंका बलवती हो रही है कि कहीं उत्तराखंड तीर्थाटन और पर्यटन दोनों मंे न चूक जाए।

    चारधामों के कपाट खुलने के मौके पर उमड़ी भीड़ काफी कुछ बयां कर रही है। इस भीड़ के तौर तरीकों से काफी कुछ स्पष्ट हो जाता है। इस भीड़ पर सरकार इतरा सकती है, कारोबारी इतरा सकते हैं। देवभूमि उत्तराखंड के लिए इसमें इतराने जैसा कुछ नहीं है।

    भीड़ देवभूमि उत्तराखंड के तीर्थाटन के महत्व को न केवल कम कर रही है, बल्कि इसको पर्यटन जैसा बना रही है। जाने अनजाने स्थानीय लोग भी इसमें भागीदार बनने लगे हैं। ये तीर्थाटन के लिए कतई ठीक नहीं है। इसमें सिस्टम का शामिल होना चिंता की बात है। धर्मावलंबियों को इस पर गौर करना चाहिए। धामों में जुट रही भीड़ अब डराने भी लगी है। यकीन न हो तो इन धामों में रहने वाले लोगों को पूछा जा सकता है।

    दरअसल, इस भीड़ में वास्तविक तीर्थ यात्री स्वयं को असहज महसूस कर रहे हैं। खासकर ग्रामीण भारत से आने वाले तीर्थ यात्रियों को धामों में उमड़ रही भीड़ से दो-चार होना पड़ रहा है। ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन/ ऑफ लाइन रजिस्ट्रेशन ने यात्रा का फकड़पान भी छीन लिया है।

    अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अब यात्रा वीकेंड तीर्थाटन का रूप लेने लगी है। उत्तराखंड के तीर्थाटन के लिए ये शुभ संकेत नहीं है। आने वाले सालों मंे और बातें भी स्पष्ट होने लगंेगी। तीर्थ यात्री/ पर्यटक देवभूमि में खुलेआम भरी दोपहरी क्या-क्या करते दिख रहे हैं ये बताने की जरूरत नहीं है।

    भौगोलिक रूप से उत्तराखंड जैसे संवेदनशील क्षेत्र में पर्यटन के नाम पर उमड़ रही भीड़ किसी भी तरह से अच्छा संकेत नहीं है। इस भीड़ से उमड़ रहे लोभ लालच ने उत्तराखंड के छोटे-बड़े कस्बों को कंक्रीट के जंगल में तब्दील कर दिया है। बगैर प्लानिंग के पसर रहे कस्बे बड़ी अनहोनी की ओर भी संकेत कर रहे हैं।

    जिन नगरों को सत्ताधीश पर्यटन नगर, पर्यटन सर्किंट के तौर पर प्रचारित कर रहे हैं उनकी भी अंदर की स्थिति लगातार बिगड़ रही है। ट़्रैफिक जाम से लेकर नगरों के ड्रेनेज सिस्टम से काफी कुछ कुछ समझा जा सकता है। पिछले कुछ सालों में कुछ घंटों की बारिश में शहरों का हाल काफी कुछ बयां कर देता है।

    कुल मिलाकर उत्तराखंड के तीर्थाटन को बचाने के लिए जरूरी है कि ठोस कदम उठाए जाएं। पर्यटन की भी सीमाएं तय हों। हुलड़ टाइप पर्यटन से राज्य को बचाने की जरूरत है।

 

Tirth Chetna

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