उत्तरकाशी का माघ मेला और प्लास्टिक का कचरा
प्रो. मधु थपलियाल।
प्लास्टिक जीवन के लिए बड़ा खतरा बन गया है। इसके निस्तारण के तौर तरीकों ने इसे चिंताजनक हालात में पहुंचा दिया है। प्लास्टिक के उपयोग/ निस्तारण को लेकर जागरूकता नकली साबित हो रही है।
उत्तराखण्ड का सीमांत जनपद उत्तरकाशी। काशी विश्वनाथ की धरती, उत्तरकाशी। माँ गंगा का मायका। गोमुख ग्लेशियर बड़े भूभाग को जल उपलब्ध करता है। उत्तरकाशी नगर के चारों ओर की पवर्त श्रृखलाएं नगर की खूबसूरती पर चार चांद लगाते हैं। पुराणों में देखें या भोगोलिक स्थिति को देखें। हर स्तर पर प्रमाणित होता है कि उत्तरकाशी शिव की तपस्थली, गृहस्थली और सभी देवी देवताओं की क्रीड़ा स्थली रही है।
वर्ष 1991-92 के भूकंप से पहले या सन 2000 तक के स्वरूप पर गौर किया जाए तो उसकी तुलना करते हुए आज निराशा हाथ लगती है। सन् 2000 तक उत्तरकाशी एक खूबसूरत शहर के रूप में दिखाई पड़ता था। साफ-सुथरी सडकें, साफ सुथरा राम लीला मैदान। खूबसूरत गलियां और सुबह-शाम मंदिरों मेें घंटियों, वेद ़़ऋचाओं की ध्वनि यहां के माहौल को सकारात्मकता प्रदान करते थे।
ऐसा कुछ अभी भी है। मगर, पहले जैसी बातें नहीं दिख रही हैं। विकास के बड़े-बड़े दावों के बीच उत्तरकाशी का नैसर्गिक स्वरूप विकृत हो रहा है। इसकी बड़ी वजह समय के साथ जरूरतों के साथ तालमेल नहीं बनाया जा सका। अब बात करते हैं उत्तरकाशी के पौराणिक माघ मेले की। उत्तरकाशी देवी देवताओं की क्रीड़ा स्थली रही है महादेव की ग्रहस्थली रही है, तो यही माना जाता है कि माघ मेले में सभी देवी देवता आकर मिलते है, गले मिलते हैं। पूरे जनपद से यहां पर देवी देवताओं की डोलियां आती हैं और शहर में एक बहुत ही सुदर देवमय वातावरण हो जाता है।
इस वर्ष माघ मेले के बाद जो रामलीला मैदान में देखा गया वो हैरान करने वाला है। मेले के बाद यहां प्लास्टिक के कचरे का ढेर लगा हुआ दिखा। मेला प्रबंधन समितियों द्वारा किसी भी प्रकार से माघ मेले से एकत्रित होने वाले कूडे का कोई भी निस्तारण करने की योजना नहीं दिखी। पूरा मैदान इस तरह के प्लास्टिक से अटा पड़ा हुआ है। हैरानगी की बात ये है कि गौ, गंगा के संरक्षण के ढोल पीटने वाले इस पर चुप्पी साधे रहते हैं। गौ माता रामलीला मैदान में प्लास्टिक को खा रही हैं। घोडे प्लास्टिक को खा रहे हैं। कुत्ते प्लास्टिक को उठाकर पूरे शहर में फैला रहे हैं।
सबसे खतरनाक तो तब हो जाता है जब यही प्लास्टिक रात को उन दुकानदारों द्वारा आग सेकने के लिए जला दी जाती है और उनसे निकलने वाला कार्बनडाई ऑक्साइड धूं-धूं कर उत्तरकाशी शहर में जहर की तरह घुल जाती है। कभी अपनी जागरूकता के लिए पहचान रखने वाले उत्तरकाशी में जब मौत खुलकर अपना तमाशा कर रही हो और उसके खिलाफ कोई बोलने वाली एक आवाज भी न हो।
अगर समय रहते उत्तरकाशी की जनता या लोग न चेते तो निश्चित रूप से इस शहर का बहुत अच्छा अविष्य नजर नहीं आता। आज वैसे ही हम एक छोटे से इस शहर का स्वरुप देखें तो इसमें उत्तरकाशी से ऊपर मनेरी झील, उत्तरकाशी से नीचे जोशियाडा झील बीच में एक सुरंग और उत्तरकाशी एक सेंसिटिव जोन है। उत्तरकाशी और आस-पास का क्षेत्र लगभग प्रत्येक साल कई प्राकृतिक आपदाओं को झेलता है, लेकिन हर प्राक्रतिक आपदा के बाद एक अनियोजित और अवैज्ञानिक विकास के कारण पूरे शहर का स्वरूप तहस-नहस होता दिखाई देता है।
शहर की योजनाओं और तमाम व्यवस्थाएं देखने वाली एजेंसियों को इस पर गौर करना चाहिए। राजनीतिक व्यवस्था के लिए होने वाले किसी भी स्तर के चुनावों में जनप्रतिनिधियों को पर्यावरण विज्ञान की शिक्षा आवश्यक होनी चाहिए। नहीं तो चुनाव मात्र और मात्र एक रोजगार के रूप में भी देखे जाने लगेंगे।
आज प्लास्टिक प्रदूषण से जहां एक और पूरी दुनिया त्राहिमाम त्राहिमाम हो रही है। वहीं संयुक्त राष्ट्र संघ ने सतत् विकास 17 सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स की बात करते हुऐ आज पूरी दुनिया में काम हो रहा है। लेकिन अगर हम यहां पर देखें तो धरातल पर इनकी कैसे धज्जियां उडती हैं। इसका नमूना था ’उत्तरकाची का माघ मेले के बाद का दृश्य।’
लेखिका उच्च शिक्षा में प्रोफेसर और पर्यावरविद हैं।