राजनीतिक अयोग्यता की सजा भुगत रहा उत्तराखंड

सुदीप पंचभैया ।
उत्तराखंड राज्य राजनीतिक अयोग्यता की सजा भुगत रहा है। क्षेत्रीयता का किसी भी स्तर पर उभार न होने से देवभूमि उत्तराखंड पूरी तरह से खाला का घर बन गया है। हालात यही रहे तो मूल निवासियों को आगे और बहुत कुछ देखना और सहना पड़ेगा।
राज्य गठन के 22 साल बाद भी राजनीतिक व्यवस्था उत्तराखंड के मूल निवासियों में भरोसा नहीं जगा पाई है। भरोसा क्षेत्रीयता का , भरोसा संशाधनों पर उनके हक का। भरोसा रोजगार पर उनके हक का। दरअसल, दिल्ली से पूरी तरह से नियंत्रित राजनीतिक व्यवस्था ऐसा करना भी नहीं चाहती। यही वजह है कि राज्य के मूल निवासियों को स्थायी निवासी बना दिया गया है।
इसके पीछे राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की मंशा उत्तराखंड के आस-पास के राज्यों के कुछ हिस्सों की राजनीति साधने की रही है। इसमें उन्हें सफलता भी खूब मिल रही है। सहारनपुर और मुरादाबाद के लोग उत्तराखंड में राज्य मंत्री बन जा रहे हैं। उत्तराखंड के ऐसे राज्यमंत्री यूपी के जाकर उत्तराखंड में हितों की पैरवी का भरोसा देते हैं।
पैरवी करते भी हैं। उनकी पैरवी से उत्तराखंड के लोगों के हित मारे जा रहे हैं। सबसे अधिक प्रभावित युवा हो रहे हैं। इस बात को उत्तराखंडी समाज पूरी तरह से समझ नहीं पा रहा है। कम से कम चुनाव के समय वो सबकुछ भूल जाता है। परिणाम राज्य हर स्तर पर छला जा रहा है।
लोग जिन्हें चुनाव जीताते हैं वो दिल्ली के मोहताज हो जाते हैं। ऋषिकेश एम्स में बिहार के एक युवती को अस्थायी नौकरी से हटाया तो वहां के सांसद ने दिल्ली में सवाल जवाब किए। एम्स प्रशासन को कड़ा पत्र लिखा। दो-चार गंभीर आरोप भी लगा दिए।
उत्तराखंड के पांच लोकसभा और तीन राज्यसभा सांसदों ने कभी ऐसा किया ? कभी नहीं और करेंगे भी नहीं। यही हाल विधायकों का भी है। जनप्रतिनिधि राज्य के हित में बोलने से पहले न जाने किन-किन का और किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहते हैं। जनप्रतिनिधियों के चेहरों पर ऐसे समय में अजीब सा डर साफ-साफ दिखता है।
हां, अंदरखाने अपनां के लिए जनप्रतिनिधि बड़े-बड़े खेल कर रहे हैं। राज्य की विधानसभा में नौकरियों की बंदरबांट की बात साबित हो चुकी है। नौकरी पाए युवा निकाले जा चुके हैं। मगर, खेल करने वाले बने हुए हैं। विभिन्न आयोग और परिषदों में काम कर रहे कार्मिकों की जांच हो जाए तो वहां भी नौकरियां विधानसभा की तर्ज पर ही बांटी गई हैं।
वास्तव में यही राजनीतिक अयोग्यता है। पूरे राज्य को अपना मानने के बजाए नाते-रिश्तेदारी, संबंधों में उलझना राज्य के हित की पूरी क्षमता के साथ वकालत न करना राजनीतिक अयोग्यता का प्रमाण है। उत्तराखंड राज्य गठन के दिन से ही इससे दो-चार हो रहा है। उत्तराखंडी समाज इस बात को पूरी तरह से समझ नहीं पा रहा है।
उत्तराखंड के लोग न जाने किन लोगों और किन नारों में आकर अपने नेताओं को बौना बना रहे हैं। अपने बेहद योग्य नेताओं की न जाने किस वजह से उपेक्षा कर रहे हैं। परिणाम राज्य में राजनीतिक अयोग्यता घर कर रही है। 22 सालों में शहीदों का सपनों का राज्य न बन पाने की सबसे बड़ी वजह यही है। इसका निदान जनता कर सकती है। अभी चेतने का समय है। नहीं चेते तो राजनीतिक अयोग्यता आगे न जाने क्या-क्या दिखाएगी।