आखिर उत्तराखंड में क्यों नहीं जाग पा रही क्षेत्रीयता की भावना
सुदीप पंचभैया ।
राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के नारों में लीन उत्तराखंड के लोगों के हित प्रभावित होने लगे हैं। हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि उत्तराखंड मूल की बेटियों को सरकारी नौकरियों में मिलने वाला क्षैतिज आरक्षण कुछ लोगों की आंखों में खटकने लगा है। इससे पूर्व राज्य आंदोलनकारियों के आरक्षण के साथ भी ऐसा ही हुआ।
ये सब इसलिए हो रहा है कि उत्तराखंड के लोगों ने अपनी मूल पहचान को राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के पास गिरवी रख दिया है। राष्ट्रीय राजनीतिक दलों ने लोगों को कथित राष्ट्रीयता की ऐसी घुट्ठी पिला दी है कि लोग क्षेत्रीयता के महत्व को ही भूल गए। अब लोग क्षेत्रीयता की बात करने में भी शर्म महसूस कर रहे हैं। परिणाम बोली/भाषा भी लीलने लगी है।
खान/पान, पहनावा और खास पहचान धूमिल होने लगी है। जबकि सच ये है कि क्षेत्रीयता राष्ट्रीयता को मजबूत करने वाला तत्व है। देश के तमाम राज्य में क्षेत्रीयता मजबूत हुई है। इससे वहां के लोगों के हित बेहतर तरीके से संरक्षित हैं। ऐसा उत्तराखंड में दूर-दूर तक नहीं दिख रहा है। वार्ड मेंबर का चुनाव में भी राष्ट्रीय स्तर की बातों को प्रमोट करने का ही असर है कि राजनीतिक दलों की सरकारों ने उत्तराखंड के लोगों को सबसे पहले मूल निवासी से स्थायी निवासी बना दिया।
सैकड़ों सालों से जिनके पुरखों ने दुर्गम भौगोलिक परिस्थितियों को जिया उन्हें राज्य बनने के बाद उत्तराखंड में बसने वालों के बराबर खड़ा कर दिया। ये राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को मजबूत करने का पहला साइड इफेक्ट है। सरकारी नौकरियों के लिए गढ़वाली, कुमाऊंनी और जौनसारी के आधारिक ज्ञान को जरूरी करने की बात का विरोध किसने किया सब जानते हैं। विरोध का झंडा उठाने वाले उत्तराखंड से राज्य सभा पहुंच गए।
स्थायी निवास की आड़ में अब उत्तराखंड मूल की बेटियों को सरकारी नौकरियों में मिलने वाला क्षैतिज आरक्षण कई लोगों की आंखों में खटक रहा है। राज्य आंदोलनकारियों को मिलने वाले आरक्षण को लेकर भी ऐसा ही हुआ। इसका मौका उक्त लोगों राष्ट्रीय राजनीतिक दलों ने दिया। अजीब बात है कि पहाड़ के नाम पर सरकार बनाने वाले राष्ट्रीय राजनीतिक दल यहां के लोगों के हितों की सुरक्षा नहीं करना चाहते हैं।
ऐसा सिर्फ इसलिए है कि उत्तराखंड के लोगों में अभी क्षेत्रीयता नहीं जाग सकी है। यहां कोई ऐसा प्रेशर ग्रुप नहीं है जो राजनीति पर नकेल कस सकें। हां, राज्य के मैदानी क्षेत्रों में कई प्रेशर गु्रप हैं। राजनीतिक दलों पर इसका असर साफ-साफ देखा जा सकता है। परिणाम मैदानी क्षेत्रों के हित पूरी तरह से सुरक्षित हैं।
क्षेत्रीयता की एडवोकेसी करने वाले क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को लोगों ने लगातार कमजोर किया। राष्ट्रीय राजनीतिक दलों में शामिल उत्तराखंड के मूल के नेता कुर्सी तो पा रहे हैं। अभासी ही सही बड़े-बड़े नेता भी हो जा रहे हैं। मगर, उत्तराखंड मूल के लोगों के पक्ष में बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।
अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उत्तराखंड में दायित्वधारी बना यूपी निवासी एक नेता ने अपने स्वागत में ऐलान किया कि वो उत्तराखंड में संबंधित क्षेत्र के लिए काम करेंगे। ये साबित करता है कि राष्ट्रीय राजनीतिक दलों ने उत्तराखंड को खाला का घर बना दिया है।