अतिक्रमण/कब्जों में लहला रही वोट की फसल पर कौन करेगा चोट
तीर्थ चेतना न्यूज
देहरादून। सरकारी जमीनों पर अतिक्रमण/कब्जों ने उत्तराखंड के शहरों की सूरत बिगाड़ दी है। इस अतिक्रमण/कब्जों में लहला रही वोट की फसल को काटने की अभ्यस्त हो चुकी राजनीति शायद ही इस पर कभी चोट कर सकें।
इन दिनों राज्य के अधिकांश शहरों का बुरा हाल है। मारे जलभराव के शहर कराह रहे हैं। नदी/नाले आबादी को नुकसान पहुंचा रहे हैं। शहरों का भूगोल बदल रहा है। आधुनिक विकास की पोल खुल रही है। ऐसा सिर्फ और सिर्फ अतिक्रमण/कब्जों की वजह से हो रहा है। आम आदमी इसे अच्छे से स्वीकार चुका है। सिस्टम इस मामले में अभी हूं हां की स्थिति में है।
दरअसल, राज्य गठन के बाद अधिकांश शहरों में नदी/नालों पर जमकर अतिक्रमण/कब्जे हुए हैं। नदी/नालों के पास की नाप भूमि खरीदकर भूमाफियाओं ने इसमंे खूब वारे न्यारे किए। नाप भूमि की आड़ में नदी/नालों के किनारों पर अतिक्रमण/कब्जे किए गए। परिणाम प्राकृतिक जल निकासियों सिकूड़ गई। कहीं-कहंीं पर तो निकासियां समाप्त ही हो गई।
इस खेल में गंगा के तटों भी नहीं बख्शा गया। सफेदपोशों ने ऐसा सब कुछ होते हुए न केवल देखा बल्कि कई मौकों को प्रमोट भी किया। अब तो स्थिति ये है अतिक्रमण/कब्जे वोट की खेती के सबसे बड़ी फार्म बन गए हैं। यहां लहलाने वाली वोट की फसल से हर राजनीतिक दल की आंखें चुंदिया जाती हैं।
इस फसल को सभी स्तर के चुनावों में अच्छे से काटा जाता है। छोटी सरकारों का तो इस अतिक्रमण/कब्जों के बगैर अस्तित्व ही नहीं है। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि आखिर शहरों के लिए खतरा बन चुके अतिक्रमण/कब्जों पर चोट कौन करेगा।
पांच साल के फ्रेम वाला सिस्टम तो शायद ही कर सकें। राज्य में प्राकृतिक आपदाओं का असर न्यून करने के लिए प्राकृतिक निकासियों को मुक्त करना जरूरी है।
इसकी शुरूआत राजधानी देहरादून से होनी चाहिए। इसके बाद सभी छोटे बड़े शहर और फिर गांव के कस्बों में भी ये अभियान चलना चाहिए। गांव से अतिक्रमण/कब्जे हटाने की शुरूआत का शायद ही उत्तराखंड राज्य को कोई लाभ मिलेगा।