500/500ः अब न बोलने को रहा और न सुनने को
सुदीप पंचभैया
500/500 जी हां, ये उत्तराखंड बोर्ड के 10 वीं के टॉपर का स्कोर है। किस विषय में कितने नंबर ? पूछने की जरूरत ही नहीं। बोर्ड ने जितने नंबर को पर्चा बनाया छात्रा उतने अंक पा गई। 500/500 अंक प्राप्त करने वाले छात्र को बधाई।
बच्चा खुश, मा-बाप खुश,पढ़ाने वाले शिक्षक और अधिक खुश। स्कूल को इतराने का मौका मिल गया। मीडिया के अपने-अपने एंगल से अखबारों के पेज भी रंग गए। मगर, सवाल अभी ज्यों का त्यों है। हिंदी में 100/100, अंग्रेजी में 100/100, सामाजिक विषय 100/100। बात इससे आगे भी है। राजनीति विज्ञान, समाजशास्त्र में भी छात्र फूल बटे फूल मार्क्स लाने का करिश्मा कर रहे हैं।
गणित और विज्ञान मंे 100/100 अंक संभव है। बताया जा रहा है कि आज से 40-50 वर्ष पूर्व छात्र/छात्राएं गणित और विज्ञान मंे 100 अंक पाते रहे हैं। मगर, मानवीकी विषयों में शत प्रतिशत अंक पाना छात्र को अच्छा लग सकता है। मगर, ये चिंता का विषय है। इस पर गौर करने की जरूरत है।
दरअसल, भाषा हिंदी हो या अंग्रेजी या समाजिक विषय इसमें शत प्रतिशत अंक किसी आश्चर्य से कम नहीं है। वजह इसमें तमाम तकनीकी बातें होती हैं, जो परीक्षक को अंक कटौती का मौका देती हैं। मगर, अब ऐसा नहीं दिख रहा है। कुल मिलकार मूल्यांकन के इस तौर तरीको को अच्छा नहीं कहा जा सकता है।
10/12 वीं 100/100 अंक परम स्थिति है। मगर, 12 वीं के बाद किसी भी कोर्स में प्रवेश परीक्षा 12 वीं के 100/100 अंक की इज्जत बचाना मुश्किल हो जाता है। यही हाल अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं में भी दिखता है। ऐसे में स्कूल स्तर पर नंबर गेम समाज में एक नकली माहौल भी पैदा कर रहे हैं। इस पर शिक्षाविदों के स्तर पर गौर करने की जरूरत भी है।
आज से 25-30 साल पहले बोर्ड परीक्षा में 50 प्रतिशत अधिक अंक प्राप्त करने पर छात्र/छात्रा की पूरी कुटुमदारी गर्व महसूस करती थी। 60-70 प्रतिशत अंक पाना समाज में बड़ी बात मानी जाती थी। मगर, अब वक्त बदल गया। बदलते वक्त ने 100/100 अंक में भी प्राकृति खुशी नहीं दिख रही है।
दरअसल, आठवीं तक नो डिटेंशन से शुरू हुआ वक्त बदलने का क्रम अब 10 वीं प्रेक्टिकल/कार्यानुभव के 20 अंक ने छात्र/छात्राओं के फेल होने की संभावनाओं को कमजोर कर दिया। अधिकांश बच्चों के पास होने की बात शिक्षा विभाग और सरकार को खूब रास आ सकती है। दरअसल, ये उपलब्धि का मामला भी है।
बहरहाल, मूल्यांकन के अति उदार पैमाने ने सही सही कसर पूरी करके रख दी। अब ये समाज पर है कि मूल्यांकन की ये पद्धति स्वीकारनी है या नहीं। निसंदेह देश के सभी स्कूली शिक्षा बोर्ड की मूल्यांकन पद्धति को ठोस और एक समान बनाने की जरूरत है। ताकि एक-दूसरे बोर्ड के नंबर गेम की देखा देखी न हो। नंबर गेम समाज पर हावी न हो। नंबर गेम नौनिहालों का बचपन न छीने।