गढ़ भोज लौटा सकता है उत्तराखंड के सीढ़ीदार खेतों का रसूख

गढ़ भोज लौटा सकता है उत्तराखंड के सीढ़ीदार खेतों का रसूख
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डा. मंजू भंडारी।

क्या उत्तराखंड राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों के सीढ़ीदार खेतों का पुराना रसूख लौट सकता है। जी हां, ऐसा हो सकता है। इसके लिए हर उत्तराखंडी के स्तर से गढ़ भोज को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। गढ़ भोज को राजाश्रय मिलना चाहिए। अच्छी बात ये है कि ऐसा होने भी लगा है।

यदि हम तीन/चार दशक पीछे जाएं तो पाएंगे कि पर्वतीय क्षेत्र के सीढ़ीदार खेतों में खासा पोटेंशियल था। परिवार इन्हीं सीढ़ीदार खेतों में पैदा होने वाली कृषि उपज से चलता था। मोटा अनाज कहे जाने वाले कोदा, झंगोरा, उखड़े चावल आदि तमाम पौष्टिक अनाज का सेवल समाज करता था।

तब एक बात प्रचलित थी कि पहाड़ में जरूर नगदी का अभाव था। मगर, भूखमरी जैसे हालात कभी पैदा नहीं हुए। इसके पीछे उद्यमिता की प्रवृत्ति थी। सात के दशक के बाद मोटे अनाज को न जाने क्यों हेय दृष्टि से देखा जाने लगा। इसका सेवन गरीबी का प्रतीक बन गया। इसके साथ ही पहाड़ की थाली से कोदा, झंगोरा गायब होने लगा।

परंपरागत भोजन रसोई से गायब हो गया। इसने समाज की पहचान का संकट भी पैदा किया। मन से शुरू हुआ ये संकट घर से होता हुआ सीढ़ीदार खेतों तक पहुंचा। खेत बंजर पड़ने लगे। पलायने ने इसकी गति को और बढ़ाया। हम अपने आप से ही बहाने बनाने लगे। सीढ़ीदार खेतों को घाटे का सौदा बताया जाने लगा।

वैज्ञानिकों द्वारा मोटे अनाजों की पौष्टिकता को रेखांकित करने और इसे स्वास्थ्य के लिए उत्तम बताने के बाद नई पीढ़ी इस पर गौर करने लगी है। अच्छी बात ये है कि श्रीअन्न को सरकार भी प्रमोट कर रही है। गढ़ भोज के माध्यम से इसके लिए माहौल बनाया जा रहा है। सात अक्तूबर को राज्य के गवर्नमेंट डिग्री/पीजी कॉलेजों में गढ़ भोज दिवस ने उम्मीद जगा दी है।

तमाम स्वयं सेवी संगठन भी इस काम में लगे हुए हैं। द्वारिका प्रसाद सेमवाल राज्य गठन के समय से ही उत्तराखंड के परंपरागत भोजन को प्रमोट करने के काम में लगे हुए हैं। सरकारी संस्थाओं मंे इस गढ़ भोज को इंट्रोडयूज कराने में उनकी अहम भूमिका रही है। अब पुलिस फोर्स भी अपनी मैस में मोटे अनाज को प्रमोट कर रहा है। सरकार मिड-डे-मील में भी मोटे सीढ़ीदार खेतों में पैदा होने वाले मोटे अनाज का शुरू करने का निर्णय ले चुकी है।

सरकार ने मंडवे का समर्थन मूल्य घोषित कर दिया है। यही नहीं मंडवे के लिए बड़ा बाजार भी उपल्ब्ध है। महानगरों में पसरा उत्तराखंडी समाज कोदे/झंगोरे पर अब गर्व महसूस कर रहा है। इसके पकवानों को आज दौर के हिसाब से तैयार किया जाने लगा है।

होटल व्यावसाय में देश दुनिया में नाम कमा चुके पर्वतीय क्षेत्र के लोग मोटे अनाज से तैयार होने पकवानों की तमाम रेसिपी को इंट्रोडयूज कर चुके हैं। मंडवा, झंगरो और पाहड़ी दालें अभिजात्य वर्ग की रसोई तक पहुंच गए हैं। दावे के साथ कहा जा सकता है कि इसकी मांग बढ़ने लगी है। इसके साथ ही पर्वतीय किसनों की जिम्मेदारी भी बढ़ गई है। इसकी उपलब्धता की चुनौती को स्वीकारना होगा। इसके लिए जरूरी है सीढ़ीदार खेतों का भूपरिष्करण करना होगा। युवा पीढ़ी को आगे आना होगा। खेती/किसानी स्टेटस सिंबल बनाना होगा।

इन सारी एक्सरसाइज के अलावा हर उत्तराखंडी सीढ़ीदार खेतों में पैदा होने वाले अनाज को अपनी रसोई में जरूर उपयोग करें। इसे अपने हिसाब से प्रमोट करे तो सीढ़ीदार खेतों का पुराना रसूख लौटते देर नहीं लगेगी।
लेखिका- हायर एजुकेशन में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।

Tirth Chetna

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