गुरू-शिष्य परंपरा से लेकर शिक्षक का कर्मचारी बनने तक का सफर

गुरू-शिष्य परंपरा से लेकर शिक्षक का कर्मचारी बनने तक का सफर
Spread the love

शिक्षक दिवस पर विशेष

सुदीप पंचभैया।

भारत गुरू-शिष्य की परंपरा वाला देश रहा है। विश्व गुरू की पदवी इसी परंपरा की देन है। ज्ञान/विभाग और प्रौद्योगिकी इसमें निहीत रही है। मगर, पाश्चात्य के अंधानुरकरण से गुरू-शिष्य परंपरा में पहले जैसी बात नहीं रही। गुरू-शिष्य परंपरा से लेकर शिक्षक का कर्मचारी बनने का सफर चरम पर है।

देश की व्यवस्था ने समाज से पहले गुरू छीना। गुरू नहीं रहे तो शिष्य भी छात्र हो गए। गुरू के बदले अब शिक्षक हैं। अब शिक्षक भी समाज से एक तरह से छीना जा चुका है और इसके बदले कर्मचारी मिल गया है।

गुरू के शिक्षक बनने से गुरूत्व क्षीर्ण हुआ। इस बात को गुरू शिष्य परंपरा के महत्व को समझने वाला कोई भी बता सकता है। अब शिक्षक को एक कर्मचारी के तौर पर ट्रीट किया जाने से रही सही कसर भी पूरी हो गई है। समाज में इसका व्यापक असर देखने को मिल रहा है। वास्तव में यही पाश्चात्य देशों का अंधानुकरण है।

प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक में इस बदलाव को देखा और महसूस किया जा सकता है। वास्तविक शिक्षकों में इसको लेकर चिंता देखी जा सकती है। मगर, मुलाजिम की घर कर गई मन स्थिति के चलते कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं है। ये स्थिति सरकारी स्कूल/कॉलेजों में ही नहीं है। बल्कि प्राइवेट स्कूलों में भी देखी जा सकती है। प्राइवेट स्कूल/कॉलेजों में ये बाजार आधारित है।

समाज इसका उपभोक्ता बन चुका है। स्कूल बाजार और शिक्षा माल बन चुकी है। यहां भी वैसे ही ऑफर हैं जैसे किसी मॉल में होते हैं। इस व्यवस्था को समाज स्वीकार चुका है और सिस्टम इसे हर स्तर पर प्रमोट कर रहा है। दरअसल, सिस्टम का कल्याणकारी राज्य के कंसेप्ट से हटने की शुरूआत है। इसके लिए तमाम प्रपंच रचे जा रहे हैं। मीडिया भी इसमें पूरी तरह से शामिल है।

बहरहाल, बुनियादी शिक्षा में नो डिटेंशन की नीति ने छात्र/छात्राओं की शैक्षिक बुनियाद को मजबूत करने का अधिकार भी शिक्षक से छीन लिया है। फेल न करने की बाध्यता अब बुनियादी शिक्षा से आगे पहुंच गई है। उच्च शिक्षा में भी छात्र/छात्रा को फेल न होने देने की तमाम व्यवस्थाएं आ चुकी हैं।

वास्तविक शिक्षक मनमसोकर काम कर रहे हैं। अब तो ये भी देखने को मिल रहा है कि शिक्षक भी इस रंग में रंग चुके हैं।  ये  चिंता की बात है। समाज और राष्ट्र की बेहतरी के लिए शिक्षकों को इस पर मुंह खोलना ही चाहिए। आधुनिक सिस्टम में शिक्षा की बेहतरी के लिए जो अच्छी बातें हो रही हैं उसका स्वागत होना चाहिए।

स्कूल/कॉलेज एक जिम्मेदार समाज बनाने के माध्यम हैं। स्कूल/कॉलेज अधिकारों से पहले कर्तव्यों का बोध कराते हैं और इसमें चलना सीखाते हैं। अब कर्तव्यों से अधिक अधिकारों की बात होने लगी है। नकारात्मक जागरूकता ने अधिकारों को उपर कर दिया है और कर्तव्य पीछे छूटने लगे हैं।

आठवीं तक कोई फेल नहीं कर सकता। ये बात स्कूली बच्चों के मुंह से सुनी जा सकती है। यकीन के साथ कहा जा सकता है कि समाज इसे अधिकार के रूप में ले रहा है। शिक्षक गलत कार्य पर दंड नहीं दे सकते इसे भी अधिकार के तौर पर माना जा रहा है।

भले ही इसे शिक्षाविद्व तमाम तर्कों से सही ठहराते हों। मगर, इससे कई प्रकार की व्याधियां शिक्षा व्यवस्था में आ चुकी हैं। शिक्षा से जुड़ी सामाजिक वर्जनाएं समाप्त हो रही हैं। आधुनिकता के नाम पर इस तरफ से आंख बंद करना और भी खतरनाक है।
व्यवस्थाएं शिक्षा में खूब परिवर्तन करें। खूब प्रयोग करें। इन प्रयोगों की समीक्षा शिक्षकांे को करने दें। उनकी टिप्पणियों/रिपोर्ट का स्वागत करें। ज्ञान/विभाग और प्रौद्योगिकी के नाम पर पाश्चात्य देशों का अंधानुकरण ठीक नहीं है। ज्ञान/विभाग और प्रौद्योगिकी से हमारी परंपरागत शिक्षा भरी पड़ी है। जरूरत पुरातन ज्ञान को खंगालने की है। नई शिक्षा नीति 2020 में इस दिशा में आगे बढ़ने की बात है।

Tirth Chetna

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *