देवभूमि उत्तराखंड में नए प्रकार की राजनीति की शुरूआत

देवभूमि उत्तराखंड में नए प्रकार की राजनीति की शुरूआत
Spread the love

सुदीप पंचभैया।

देवभूमि उत्तराखंड में राजनीति की नई कोंपले फूटने लगी हैं। देर सबेर इसका एडवांस वर्जन भी सामने होगा। समय-समय पर बतर्ज पायलट प्रोजेक्ट इसका ट्रायल भी होता रहा है। लोग भी इसके अभ्यस्त होने में देर नहीं लगाएंगे।

जी हां, 23 सालों में उत्त्तराखंड यूपी की छाया प्रति से किसी भी भी मामले में अलग नहीं हो सका है। भ्रष्टाचार के मामले में तो उत्तराखंड ने यूपी को पीछे छोड़ दिया है। एक पूर्व मुख्यमंत्री ने तो इसे सावर्जनिक तौर पर स्वीकार भी किया।

राजनीतिक के एक खास प्रकार की नेताओं को उत्तराखंड में अभी जरूरत ही महसूस नहीं हुई। ये प्रकार है बाहुबल का। नेताओं का काम यूं ही चलता रहा है। उनके अग्गू-भग्गू डांडी-कांठयूं में भौकाल काटकर नेता जी का काम चलाते रहे हैं।

हां, राज्य के कुछ मैदानी क्षेत्रों में दो-चार नेता बाहुबल पर गुमान करते रहे हैं। पिस्टल लहराने, फायर दागने के मामले भी सामने आते रहे हैं। सिस्टम ने ऐसे मामलो में कभी एक्शन नहीं लिया। परिणाम राज्य के कुछ मैदानी क्षेत्रों में राजनीति का ये प्रकार और तेजी से बढ़ रहा है।

राज्य का पर्वतीय क्षेत्र अभी तक इन बातों से दूर रहा। मगर, अब शायद ऐसा नहीं रहा। अब नेताओं ने बाहुबल दिखाने का ट्रायल देना शुरू कर दिया है। एक कैबिनेट मंत्री ने खुलेआम इसकी शुरूआत भी कर दी है। एक युवक के साथ जमकर मारपीट की गई। इस अंदाज में मारपीट की गई कि कोई बीच बचाव की हिम्मत भी नहीं जुटा सका।

बाहुबल की शुरूआत उसी अंदाज में हो रही है जैसे देश के कुछ अन्य हिस्सों में दिखती है। मारपीट के बाद पुलिस से शिकायत और मीडिया के सम्मुख सफाई का अंदाज तो और भी खास है। हैरानगी की बात ये है कि पुलिस का एक्शन का तौर तरीका भी उसी अंदाज का है।

मारपीट करने की शुरूआत करने वाला पुलिस के रिकॉर्ड में अन्य में है। ये राज्य के लिए चिंता की बात है। यदि बाहुबल के पहले ही मामले में सरकार, पार्टी संगठन और पुलिस कड़ी एक्शन ले ले तो शायद है कि इस प्रकार की राजनीति राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में हतोत्साहित हो। नेता/सत्ताधीश ऐसा करने की हिम्मत न जुटाएं।

नेताओं के अग्गू-भग्गू भौकाल काटने की हिम्मत न करें। मगर, ऐसा होता दिख नहीं रहा है। आम लोग इससे हैरान परेशान हैं। इसे स्पष्ट बहुमत का साइड इफेक्ट भी माना जा रहा है। पिछले कुछ सालों से उत्तराखंड की राजनीति में इसे कई तरह से महसूस भी किया जा रहा है।

विकासात्मक गतिविधियों में तो ऐसा साफ-साफ दिखता है। एक ही मार्का के इंजन होने के बावजूद धरातल पर विकास दूर-दूर तक नहीं दिख रहा है। जनहित में विरोध की गुंजाइश भी पूरी तरह से समाप्त हो गई है।

Tirth Chetna

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *