क्या शिक्षा की पैमाइश संभव है?

क्या शिक्षा की पैमाइश संभव है?
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एक किताब
किताबें अनमोल होती हैं। ये जीवन को बदलने, संवारने और व्यक्तित्व के विकास की गारंटी देती हैं। ये विचारों के द्वंद्व को सकारात्मक ऊर्जा में बदल देती है। इसके अंतिम पृष्ठ का भी उतना ही महत्व होता है जितने प्रथम का।
इतने रसूख को समेटे किताबें कहीं उपेक्षित हो रही है। दरअसल, इन्हें पाठक नहीं मिल रहे हैं। या कहें के मौजूदा दौर में विभिन्न वजहों से पढ़ने की प्रवृत्ति कम हो रही है। इसका असर समाज की तमाम व्यवस्थाओं पर नकारात्मक तौर पर दिख रहा है।

ऐसे में किताबों और लेखकों को प्रोत्साहित करने की जरूरत है। ताकि युवा पीढ़ी में पढ़ने की प्रवृत्ति बढे। हिन्दी न्यूज पोर्टल www.tirthchetna.com एक किताब नाम से नियमित कॉलम प्रकाशित करने जा रहा है। ये किताब की समीक्षा पर आधारित होगा। साहित्य को समर्पित इस अभियान का नेतृत्व श्रीदेव सुमन उत्तराखंड विश्वविद्यालय की हिन्दी की प्रोफेसर प्रो. कल्पना पंत करेंगी।

प्रो. कल्पना पंत ।
नवारुण प्रकाशन से प्रकाशित तथा बच्चों के बीच विज्ञान को लोकप्रिय बनाने की देशव्यापी मुहिम से जुडे़ घुमक्कड़ अध्येता आशुतोष उपाध्याय द्वारा अनूदित पीटर ग्रे (शिक्षा मनोविज्ञान के अमेरिकी अध्येता) जो कि शिक्षा और खेलों के अन्तर्संबंध पर उनके गहन शोध के लिये जाने जाते हैं, के लेखो का शिक्षा का अर्थ के नाम से अनुवाद किया गया है.
पुस्तक में सात लेखों का अनुवाद है. शिक्षा का संक्षिप्त इतिहास ,क्या शिक्षा की पैमाइश संभव है? खुद से सीख सकते हैं बच्चे। ए-1, खुद से सीख सकते हैं। बच्चे -2 क्या है खेल और क्यों है सीखने का इतना शक्तिशाली माध्यम खेल का क्षय , माता-पिता से लगाव के आगे बच्चों को चाहिए -समुदाय।

आज हर जगह बच्चों को स्कूल भेजना कानूनी बाध्यता है। आज यह सोचा जाता है कि बच्चों को स्कूल न भेजें तो वह बड़े होकर उस तरह लायक नहीं बन पाएंगे. आधुनिक स्कूल के जिस रुप को आज हम जानते हैं वह मूल रूप से प्रोटेस्टेंट सुधारों पर आधारित है। उस जमाने में शिक्षा का उद्देश्य बच्चों को आज्ञाकारी तथा धार्मिक बनाना था लेकिन अभी स्कूल बच्चे के जीवन के संपूर्ण हिस्से को नहीं डरता था लोग आजीविका और सामाजिक जीवन में काम आने वाले जरूरी हुनर वास्तविक दुनियावी गतिविधियों से सीख लेते थे वर्तमान समय में बच्चे समरूप उत्पाद की तरह तैयार हो रहे हैं. अगर छात्र अधिक अंक नहीं ला पाते तो उन पर पढ़ने का भारी दबाव बना दिया जाता है बच्चों के लिए खुशगवार होगा कि उनमें तार्किक ढंग से सोचने की क्षमता विकसित हो, वे दूसरों की खुशियों की परवाह करें और स्वयं भी खुश रहें. उनमें भावनात्मक लचीलापन हो उनके कुछ लक्ष्य ऐसे हों जिनको पाने का उनमें जुनून हो साथ ही उनमें मानव अधिकारों से जुड़े हुए मानवीय मूल्य हों।

पुस्तक का तीसरा अध्याय है खुद सीख सकते हैं बच्चे लेखक का कहना है कि हमें यह चिंता नहीं करनी है कि बच्चों के पाठ्यक्रम पाठ योजना और परीक्षा का स्वरूप क्या हो बल्कि हमें यह सोचता है कि बच्चों के लिए सुरक्षित स्वास्थ्य वर्धक और सम्मानजनक माहौल कैसे बनाया जाए जहां बच्चों को भरपेट भोजन शुद्ध हवा खेलने को प्रदूषण मुक्त जगह तथा सभी आयु वर्ग के लोगों के साथ खुलकर बोलने खेलने और बातचीत करने का पर्याप्त अवसर मिले बड़ों को स्वयं को एक नेक इंसान के रूप में बच्चों के सामने पेश करना चाहिए।

बच्चे स्कूल जाने से पूर्व बिना किसी के सिखाए बहुत कुछ सीख लेते हैं और यह सब खेल खेल में अपने प्रयासों से और उनकी अपनी सहज वृत्ति के कारण हो जाता है लेखक ने मैसाचुसेट्स के सडबरी वैली स्कूल का उदाहरण दिया है जहां बच्चे स्वतंत्र वातावरण में सीखते हैं. यहां कोई परीक्षा नहीं है, कोई इनाम नहीं, यहां से निकल कर वे उन सभी व्यवसायों में सफलतापूर्वक जाते हैं जिनमें अन्य स्कूलों के बच्चे जाकर सफल माने जाते हैं।

बच्चे दो पाँवों पर चलना, दौड़ना, कूदना, झूलना और भाषाएं स्वयं ही अपनी आंतरिक ऊर्जा और उत्साह के द्वारा सीख लेते हैं यह अनुभव शिक्षा को निहायत ही नई रोशनी में देखने का अनुभव है वह रोशनी जो बच्चे के भीतर से निकलती है।
छोटे बच्चे अपने आसपास की दुनिया के सभी पहलुओं को जानने के लिए बेहद उत्सुक होते हैं चीजें कैसे काम करती है और उन्हें नियंत्रित कैसे किया जाता है इस बात की ललक होना विज्ञान की बुनियादी चीज है अगर हम हर चीज बच्चों को बताते हैं तो हम उनकी स्वतंत्र चेतना को बांध देते हैं।

खेल बच्चों को सामाजिक व नैतिक शिक्षा देने का महत्वपूर्ण माध्यम है. खेल द्वारा ही बच्चे दूसरों को साथ लेकर चलना सीखते हैं. अपनी सामाजिक और सफलता और असफलता के परिणामों का स्वयं अनुभव करते हैं. साथ खेलने का यह प्राकृतिक परिणाम एक गहरी सीख दे जाता है।

भाषण और सुझाव स्वतंत्र अनुभव का विकल्प नहीं बन सकते पाँच या दस साल से बड़े बच्चों को भी अपनी रूचि का अनुसरण करने की आजादी और अवसर दिए जाएं तो खेलने और खोजने की उनकी ललक पहले जितनी तीव्रता के साथ हमेशा उन्हें प्रेरित करती रहती है।

क्या है खेल और क्यों है सीखने का इतना शक्तिशाली माध्यम 1989 में, अपनी पुस्तक द प्ले ऑफ एनिमल्स में जर्मन दार्शनिक और प्रकृतिवादी काल ग्रूस दलील देते हैं कि खेल प्राकृतिक चयन का उपहार है ताकि जानवर जीवित रहने व संतानोत्पत्ति के लिए आवश्यक कौशलों का अभ्यास कर सकें।

जानवर उनको कौशलों पर आधारित खेलों को अधिक खेलते हैं जो उन को जीवित रखने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है द प्ले ऑफ मैन में ग्रूस जानवरों के खेलों से आगे कहते हैं इंसानों को जानवरों की बनिस्बत कहीं ज्यादा सीखना पड़ता है इसलिए वे जानवरों की तुलना में ज्यादा खेलते हैं इसी तरह बच्चे रचनात्मक सामाजिक शारीरिक तथा भाषाई इत्यादि विभिन्न प्रकार के कौशल खेलों के द्वारा विभिन्न प्रकार के कौशल सीख लेते हैं। हमने बच्चे के सहज विकास की बहुत सी चीजों को खत्म करके बच्चों के लिए खराब दुनिया बना डाली है बच्चे को प्रकृति से मिले गुणों को मुखरित करना रूसी शिक्षक वसीली सुखोम्लीन्स्की शिक्षा का मुख्य अंग मानते हैं.खुद पर नियंत्रण का एहसास ना होना चिंता और अवसाद को जन्म देता है अगर बच्चे को कोई हर समय नियंत्रित करता रहे तो यह उसके स्वाभाविक विकास के लिए बहुत बड़ी बाधा हो सकता है।

पुस्तक का अंतिम लेख है माता-पिता से लगाव के आगे बच्चों को चाहिए समुदाय प्रकृति बच्चों को इस तरह डिजाइन करके नहीं भेजती कि उसका केवल माता या केवल माता और पिता के साथ ही लगाव हो अपने बच्चे को एकांगी बनाने और केवल माता- पिता पर निर्भर रहने के बजाय समुदाय के साथ संपर्क में रहने देने की महती जरूरत है. अन्यथा बच्चे ऐसे स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में विकसित नहीं हो पाएंगे जो अनेक लोगों के साथ एक सहज रूप में रिश्ते बना पाने में समर्थ हों।

पीटर ग्रे का कहना है कि बच्चे का अपने माता पिता के साथ जरूरत से ज्यादा अनन्य संबंध न केवल बच्चे के साथ अन्याय है बल्कि मां के लिए भी बोझ बन सकता है ऐसा लगाव माँ को अलगाव में डाल देता है और बच्चा दुनिया के सामने खुद को ढंग से तैयार नहीं कर पाता।

महान पोलिश शिक्षाशास्त्री यानुश कोर्चाक अपने एक पत्र में लिखते हैं कि बालक के अन्तःकरण के स्तर तक ऊँचा उठना चाहिये, न कि उसे कृपा दृष्टि से देखना चाहिये. हमें उनकी इस बात पर अमल करना होगा कि बच्चे की आत्मा के साथ जबरदस्ती मत कीजिए।

पुस्तक में कहीं-कहीं पर एक-दो कमियां खटकती हैं एक तो लेख सात हैं लेकिन उनमें क्रम छःके ही दिए गए हैं .नंबर चार दो लेखों को दे दिए गया हैं और पुस्तक में यह नहीं लिखा गया है कि उनकी किस पुस्तक या लेखों का अनुवाद है. भाषा अत्यंत सहज और सरल है। पुस्तक नवारुण प्रकाशन से प्रकाशित हुई है और बेहद पठनीय है।

Tirth Chetna

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