इक्कीसवीं सदी की एक दिलचस्प दौड़ – सुभाष पंत
एक किताब
किताबें अनमोल होती हैं। ये जीवन को बदलने, संवारने और व्यक्तित्व के विकास की गारंटी देती हैं। ये विचारों के द्वंद्व को सकारात्मक ऊर्जा में बदल देती है। इसके अंतिम पृष्ठ का भी उतना ही महत्व होता है जितने प्रथम का।
इतने रसूख को समेटे किताबें कहीं उपेक्षित हो रही है। दरअसल, इन्हें पाठक नहीं मिल रहे हैं। या कहें के मौजूदा दौर में विभिन्न वजहों से पढ़ने की प्रवृत्ति कम हो रही है। इसका असर समाज की तमाम व्यवस्थाओं पर नकारात्मक तौर पर दिख रहा है।
ऐसे में किताबों और लेखकों को प्रोत्साहित करने की जरूरत है। ताकि युवा पीढ़ी में पढ़ने की प्रवृत्ति बढे। हिंदी सप्ताहिक तीर्थ चेतना एक किताब नाम से नियमित कॉलम प्रकाशित करने जा रहा है। ये किताब की समीक्षा पर आधारित होगा।
शिव प्रसाद जोशी ।
पांच दशकों से लगातार अपनी कथाओं से भारतीय साहित्य को और हिंदी भाषा को भरते, चकित और रोमांचित करते हुए सुभाष पंत का नया कहानी संग्रह, “इक्कीसवीं सदी की एक दिलचस्प दौड़” के नाम से, ऋषिकेश के काव्यांश प्रकाशन से आया है।
वरिष्ठ कथाकार ज्ञानरंजन के मुताबिक सूचियों से गायब रहे लेकिन उनकी कहानियां कभी लचकी नहीं। सुभाष पंत की पहली कहानी “गाय का दूध” 1973 में छपी थी. मेरी देहरादून में उनसे चंद मुलाकाते हैं, इतने उत्साह और गर्मजोशी से हाथ मिलाने और सलाम दुआ करने वाले व्यक्ति मैंने बहुत कम देखे हैं। और इतनी तनी हुई पीठ के साथ. उनकी सक्रियता बहुत ख़ास है।
आंदोलनों, बैठकों, साहित्यिक कार्यक्रमों में भी वे उपस्थित रहते आए हैं. सुभाष जी के चेहरे पर और शख़्सियत में आत्मविश्वास रहता है और थाह लेने की जिज्ञासु आंखे आपकी ओर देखती रहती हैं। वो जैसे कुछ नोट करते रहते हैं। शायद इसीलिए उनकी कहानियों में इतनी बारीक तफ्सीलें, इतने दूर के, हाशिये के, भुला दिए गए लोग मुख्य किरदारों की तरह आते हैं और अपने किस्सों से और अपनी दिनचर्या, आवाजाही, गफ़लतों, कमज़ोरियों और बेयकीनियों से हमें हैरान करते रहते हैं।
इनके वृत्तांतों में किसी तरह की कलात्मकता नहीं हैं, वे बीहड़ हैं, खुरदरे जीवन से लथपथ हैं और बेहिचक और स्वाभाविक हैं। सुभाष अपनी कहानियों को सजाते नहीं हैं, उनमें कलाएं नहीं करते, उनमें कलात्मक या भाषायी सौंदर्य की नाना छवियां नहीं उकेरते हैं। कहानी को उत्तरआधुनिक हाहाकार में गिरने से बख़ूबी बचाए रहते हैं और कहानी के भूमंडल में इधर प्रकट हुए चमत्कारों के तो बिल्कुल पास भी अपने कथानक या शिल्प को उन्होंने भटकने नहीं दिया है।
यह अनुशासन और धैर्य यूं ही नहीं आता. एक बहुत लंबा रचनात्मक जीवन अनुभव चाहिए होता है, एक निरंतर जलती आग की तरह जो रोशनी भी है और तपिश भी. सुभाष कहते हैं, “मैंने अपने कथानक ऐसे ही मामूली आदमियों के संसार से चुनने का प्रयास किया है, जो सबकी आंखों के सामने होने पर भी अनुपस्थित मान लिए गए हैं. इनकी जीवनेच्छा, आशा, आकांक्षा, संघर्ष और सपने ही मेरी कहानियों की प्राणशक्ति हैं.” रुल्दुराम, बूढ़ा रिक्शा चालक, छगन भाई, रुक्मा जैसे किरदारों की कहानियां, सुभाष पंत के यहां बिखरी हुई हैं, जो चमकीले दायरों से दूर रहते हैं और इन दायरों में उनकी मौजूदगी या आवाजाही कई तरह की विडंबनाओं को जन्म देती है।
वह सड़क पार करता बूढ़ा हो सकता है जो एक मामूली और साधारण सी कार्रवाई को एक असाधारण सामाजिक-आर्थिक द्वंद्व में बदल देता है. क्या लेखक ही वो हमारा सड़क पार खड़ा बूढ़ा है जो 21वीं सदी की एक दिलचस्प दौड़ का, सीमांत के एक कथानायक की तरह वर्णन कर रहा है।
उनकी कहानियों की एक बुनियादी विशिष्टता उनकी प्रथम पंक्तियां या प्रथम वाक्य भी हैं. उससे उनकी कला के हुनर और जादू का पता चलता है. ऐसा बहुत ही कम होता है कि कोई कहानी अपनी पहली लाइन से ही आपको अपने भीतर खींच ले जाए. यानी ये खींच किसी रहस्य या उत्तेजना या रोमांच का आकर्षण नहीं बल्कि धरती की खींच की तरह है. उसे धरती के मामूली, साधारण, भूले-भटके, लापरवाह, लाचार से इंसानों ने अपनी बेचैनियों और आंतरिक उत्पातों से ऐसा बनाया है।
कुछ मिसालें आप देखिएः
..ऐसा सिर्फ़ रुल्दुराम के साथ ही हो सकता है।
..बात एकदम साधारण थी, किसी भी सभ्य नागरिक को इस पर चौंकने की कहीं कोई गुंजायश नहीं थी।
..संस्थान ने कुंदन खलासी को उसकी वफ़ादार सेवाओं के बदले में दमे की बीमारी दी थी।
… ये मेरे पिता के अंतिम क्षण थे।
….दरअसल लड़ाई रघुवीर और बनवारी के बीच नही थी. वे तो सिर्फ़ लड़ाई की पोशाकें पहने हवा में दफ़्ती की तलवारे भांज रहे थे।
….वे सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि कभी ऐसा हो सकता है. उसने भी कहां सोचा था कि वह ऐसा कुछ कर देगा।
….शक तो लालता को रात ही हो गया था।
….दरअसल ऐसा कोई संकट भी नहीं था।
अलग अलग कहानियों की इन शुरुआती पंक्तियों को आप चाहें तो एक साथ मिलाकर भी पढ़ सकते हैं और किसी एक अद्भुत निराली कथा का आनंद भी उठा सकते हैं. वैसे इन पहली पंक्तियों के पीछे भी कथा का एकसंसार है जो अभिव्यक्त नहीं है। यानी आप पाएंगे कि कहानी कहीं बहुत पहले कहीं और किसी और भूगोल में किसी और बिंदु पर किसी और ब्रह्मांड में हरकत में आ चुकी है और अपना काम करते हुए यहां तक पहुंची है।
अच्छी कथा का फलक शायद इतना ही विस्तृत, अदेखे अज्ञात अदृश्य कोनों तक चला जाता होगा और वहां से लौटकर इस जीवन में तना रहता होगा। सुभाष पंत ने दस कहानी संग्रह और दो उपन्यास हिंदी भाषा को दिए हैं. एक नाटक भी है. अपनी संख्या में ही नहीं, ये रचनात्मक विपुलता ‘बार बार सत्य को बतलाने’ की अपरिहार्य राजनीतिक और लेखकीय प्रतिबद्धता से भी आई है।
हिंदी कवि और बेजोड़ गद्यकार रघुवीर सहाय ने लिखा था, “बहुत लिखना ही लेखक के लिए एक रास्ता बच रहता है, क्योंकि वह बहुत बार और बार-बार बिगड़े हुए यथार्थ को जानने और जांचने के लिए सत्य के अभी तक हुए दुरुपयोग को न दोहराने के लिए और संगठित राजनीति द्वारा असमता, अन्याय, शोषण और दमन के विस्तार को अपनी समझ में समेटने और दूसरे की समझ में पैदा करने के लिए भाषा का इस्तेमाल सिर्फ़ बहुल लिखकर ही कर सकता है। ऐसा करने से ही वह अपने गुणदोष सहित सबसे अधिक प्रकट हो सकेगा।
इक्कीसवीं सदी की एक दिलचस्प दौड़ (कहानी संग्रह), सुभाष पंत
काव्यांश प्रकाशन, ऋषिकेश, सितंबर 2022
मूल्यः 250 रूपये