प्रकृति प्रेमी और अन्याय के विरुद्ध संकल्पबद्ध कवि चंद्रकुँवर बर्त्वाल

प्रकृति प्रेमी और अन्याय के विरुद्ध संकल्पबद्ध कवि चंद्रकुँवर बर्त्वाल
Spread the love

जन्म दिन पर विशेष ।

कल्पना पंत।

रूद्रप्रयाग। आज प्रकृति प्रेमी और अन्याय के विरुद्ध संकल्पबद्ध कवि चंद्रकुँवर बर्त्वाल की जयंती है। 20 अगस्त 1919 को जन्मे इस महान कवि ने 28 सालों में ही साहित्य के ऐसे संसार की रचना कर दी जो आने वाली हर पीढ़ी प्रेरित करेगा।

आज पूरा दिन चंद्रकुँवर बर्त्वाल से संबंधित क्षेत्रों के भ्रमण में बीता। वह स्थान उडामण्डा जहां उन्होंने प्राथमिक शिक्षा ली, नागनाथ का वह मिडिल स्कूल जो अब इंटरमीडिएट कॉलेज है। इसी स्कूली के छात्रावास चंद्रकंॅवर बर्त्वाल रहे। अंग्रेजों का बनाया हुआ डाक बंगला जिसका अब केवल चिह्न बाकी है।

चारों ओर बाँज के पेड़ों का सघन अरण्य और अद्वितीय प्राकृतिक सुषमा जिसके बारे में चंद्रकुँवर बर्त्वाल ’नागनाथ” शीर्षक कविता में लिखते हैं-ये बाँज पुराने पर्वत से/ये हिम से ठंडा पानी/ये फूल लाल संध्या से/इनकी यह डाल पुरानी। मन यहीं बस गया है और यहां से जाने के उपरांत भी शायद बार-बार स्मृतियों से यह स्थान कभी विलग न होगा. बिहारी अपने एक दोहे में कहते हैं-सघन कुंज छाया सुखद सीतल मंद समीर।/मनु वै जातु अजौं वहै, उहि जमुना के तीर।

सो मेरा मन भी बार-बार इस मनोहर भूमि की यात्रा करता रहेगा जिसके सौंदर्य पर चंद्रकुँवर बर्त्वाल ने प्रकृति से संबंधित बेहतरीन कविताएं लिखीं और जहां उन्होंने अन्याय के विरुद्ध अपनी, वाणी को स्वर दिया अचानक जंगल के भीतर से एक हिरन चौकड़ी भरता हुआ तीर की तरह निकल भागा अपरिमित सौंदर्य से भरा हुआ यह स्थान हिमवंत कवि की स्मृति का साक्षी है, जिन्हें आलोचक प्रसाद पंत और निराला के समकक्ष रखते हैं।

चंद्रकुँवर बर्त्वाल की रचनाओं पर लगभग 23 पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं इनमें से केवल एक उनके जीवित रहते सन 1945 में उनके परम प्रिय मित्र शंभू प्रसाद बहुगुणा ने प्रकाशित की जिसका नाम है ’हिमवंत का एक कवि चंद्रकुँवर बर्त्वाल’ वस्तुतः चंद्रकुँवर बर्त्वाल की अल्प आयु में मृत्यु के बाद उनके मित्र शंभू प्रसाद बहुगुणा ने ही उन्हें व्यापक स्तर पर पहचान दिलाई।

.शेष सभी संग्रह नंदिनी-1946, विराट हृदय1950, नाट्य नंदिनी 1953, पयस्विनी 1941 ,साकेत परीक्षण 1950, गीत माधवी 1951, जीतू , प्रणयिनी 1952, कंकड़ पत्थर 1950, सुंदर असुंदर 1949, साकेत परीक्षण 1952, विराट ज्योति, मानस मंदाकिनी 1951, नागिनी, हिरण्यगर्भ कवि, काफल पाक्कू , 1952, उदय के द्वारों पर 1953, चंद्र कुंवर बर्त्वाल की कविताएं दृभाग-1 1981, चंद्र कुंवर बर्त्वाल सन 1999, चंद्र कुंवर बर्त्वाल का कविता संसार 2004, चंद्र कुंवर 1999, में{ शंभू प्रसाद बहुगुणा, विश्वंभर प्रसाद डबराल , उमाशंकर सतीश , चंद्रकुंवर बर्त्वाल शोध संस्थान, उत्तराखंड देहरादून, बुद्धि वल्लभ थपलियाल द्वारा } एवं इतने फूल खिले 1997 में पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित हुआ है।

इस लेख को लिखने में योगम्बर सिंह बर्त्वाल द्वारा संकलित व संपादित पुस्तक चंद्रकुँवर बर्त्वाल का जीवन दर्शन एवम स्थानीय लोगों से वार्ताओं का आधार बनाया गया है। प्रधानतया इतने फूल खिले संग्रह में उपलब्ध कविताओं पर एक संक्षिप्त विवेचन उक्त आलेख में किया जा रहा है- चंद्र कुमार बर्त्वाल की अधिकतर कविताओं में छायावाद की झांकी मिलती है।

रचना काल की दृष्टि से उनमें प्रगतिवाद की भाव भूमि विद्यमान हैं. नंदिनी संग्रह की बेहद खूबसूरत कविता है जिसमें कवि प्रेम की अमरपुरी में रहने की कामना करते हुए कहता है- मुझे प्रथम प्रेम की अमरपुरी में अब रहने दो/ अपना सब कुछ दे कर कुछ आंसू लेने दो. कवि के मन में पहाड़ का सौंदर्य बसा है उसे समुद्र मैदान किसी की भी दरकार नहीं है- मुझको पहाड़ ही प्यारे हैं शीर्षक कविता में कवि लिखता है- प्यारे समुद्र मैदान जिन्हें/ नित रहें उन्हें वही प्यारे/ मुझको तो हिम से भरे हुए /अपने पहाड़ ही प्यारे हैं. नवयुग शीर्षक कविता में कवि ईश्वर की दुनिया में भेदभाव होने को असंगत ठहराता है। वह हर उस व्यक्ति को गर्व से भरने की बात करता है जो स्वयं को पशु सदृश गिनता है, जो सबके सामने नत रहता है।

निराला के बादल राग की तरह कवि लिखता है दृआओ बर्बरता के शव पर अपने पग धर/ खिलो हँसी बनकर पीडित उर के अधरों पर/ करो मुक्त लक्ष्मी को धनियों के बंधन से/ खोलो सबके लिये द्वार सुख के नंदन के/ दो भूखों को अन्न और मृतकों को जीवन/ करो निराशों में आशा का बल का वितरण. काल नागिनी और यम अपने में विलक्षण कविताएं हैं, काल नागिनी में एक विरोधाभास प्रतीत होता है ,कवि ज्योति के लिये काल नगिनी विशेषण का प्रयोग करता है- जो मेघ पुंज में खेल रही है, बादलों को डस कर वह काल नागिनी अंधकार को ज्योतित करती है शायद यह पराधीनता का अंधकार है जिसके लिये ज्योति को काल नगिनी के रूप में आना पड़ा है।

यम कविता में कवि मृत्यु के चरणों में सहर्ष समर्पित होने को तत्पर है, कवि को 1939 से 1949 तक लखनऊ प्रवास के दौरान निराला का सानिध्य मिला. निराला के प्रति : मृत्युंजय कविता में वे लिखते हैं-सहो अमर कवि/ अत्याचर सहो जीवन के/ सहो धरा के कंटक/ निष्ठुर वज्र गगन के/ कुपित देवता हैं /तुम पर/ हे कवि गा गाकर/ क्योंकि अमर करते तुम/ दुःख सुख मर्त्य भुवन के/ कुपित दास हैं तुम पर/ हे कवि/ क्योंकि कभी न तुमनें / अपना शीश झुकाया/ गीत मुक्ति का गया/सहो अमरकवि/ अत्याचार सहो जीवन के. मनुष्य कविता में मनुष्यता के पक्ष में कवि कहता है -स्वार्थ छोड़ यदि प्रेमभाव वह अपना लेता/जाने इस निराश पृथ्वी को क्या कर देता।

मेघ कृपा कविता में कवि प्रकृति के और बारिश के विलक्षण सौंदर्य का चित्रण करता है -जिन पर मेघों के नयन झरे/ वह सब के सब हो गए हरे. अन्याय के विरुद्ध कवि दृढ़ संकल्पित है वह कहता है कि- मेरे शरीर के वह चाहे टुकड़े-टुकड़े कर खा डाले/ पर मैं अपना सिर जालिम के पैरों पर नहीं झुका लूंगा. पराधीन धरती के लिए कवि सहर्ष ही आत्म बलि के लिए प्रस्तुत है- बलि दूंगा जननी मैं जीवन की बलि दूंगा/तुम्हें मुक्त करने को मां सौ बार मरूंगा/ थाम चक्र पीड़न का/मैं अपनी छाती पर-/उसे क्षीणकर दूगा.कविपशु कविता में वह धन पर न्योछावर लेखकों की भर्त्सना करता है-तुमने गान किये उनके जो निंदित पशु थे/ तुमने गूंथे हार सदा धनिकों के/पहुंचा सरस्वती को उनके गंदे महलोंतक/तुमने दूतिन बना दिया उसको हा अब तक. ज्योति धान कविता में प्रकृति का मनोरम चित्रण है-सूरज ने सोने का हल ले /चीरा नीलम का आसमान/ किरणों ने कोमल हंस असंख्य/ बोए प्रकाश के पीत गान. सन 1939 मैं इलाहाबाद में रहते हुए वे क्षय रोग से ग्रस्त हो गये. क्षय रोगउस समयलाइलाज था ,कवि ने लिखा -मारता देखो तपा- तपा क्षय. यह अति ही निष्करुणरोग/कहते हैं रोगी वचन क्षीण/डरते हैं करते घृणा लोग/अपने रुग्ण शरीर पर लिखा उनका एकमुक्तक है-जम कर बैठी पीठ पर, मौत बिखेरे बाल,/मरियल टट्टू चल रहे, चंद्रकुंवर बर्त्वाल।

उनकी निम्न पंक्तियों में नैराश्य है- आएगा बसंत पर मैं न हरा अब हूंगा/ गरजेगा सावन मैं उसकेस्वर न सुनुंगा./होंगे इतने उत्सव इन राहों के ऊपर/ जाएगी इतनी चाहें सुख से सज धज कर/ होंगेइतने श्रात. न मैं कुछ अब देखूंगा /आएगा सावनमैं उसके स्वर न सुनुंगा. सन 1940 के बाद कवि नेमृत्यु के इस भय पर विजय प्राप्त कर ली नंदिनीके तृतीय खंड में उन्होंने लिखा -दुख ने ही मुझकोप्रकाश का देश दिखाया/सुख ने मुझको हल्का सा ही राग सुनाया .निराला की जूही की कली की तरह मुक्त छंद में उन्होंने नंदिनी में एक कविता लिखी है- उनके अधीर चुंबन जब मुझ पर झड़ते वह उन्मद स्वप्न देख मैं जगती . उनकी कंकड पत्थर कविता प्रगतिवाद की पीठिका मैं है यह मोती नहीं है सुघर/ये न फूल पल्ल्व सुंदर/ये राहों में पड़ हुए/ धूल भरे कंकड दृपत्थर राजाओं उमरावों के/ पांवों से है घृणा इन्हें/ मजदूरों के पांवों को धरते ये अपने सिर परकालनागिनी ,यम, निराला के प्रतिः मृत्यंजय, हिमालय, कलिदास के प्रति, हिमप्रात, हिमालय, निद्रित शैल जगेंगे, मेघ गरजा, मैं सूने शिखरों से आया, रजत चोटियां, संतोष इत्यादि इस संग्रह की मह्त्वपूर्ण कविताएं हैं।

उन्होंने अमेरिका के प्रति , ब्रिटेन के प्रति , जिन्ना के लिये भी तीखी व्यंग्य कविताएं भी लिखीं हैं सांप्रदायिकता के भी विरोध में वे कबीर की तरहखरा- खरा लिखते प्रतीत होते हैं गोविंद चातक ने इतने फूल खिले में सकलित अपने लेख में पंडित और मौलवी पर उनका एक व्यंग्य उद्धृत किया है-पंडित जी बोलेः स्वर्ग लोक में संस्कृत बोली जाती है/ मुल्ला जी बोले अल्ला को अरबी जबानही भाती है/ मुल्ला ने पकड़ी चोटी,पंडित जी की मोटी-मोटी; / और उधर पंडित जी ने दाढ़ी, मुल्ला जी की नोची झाड़ी/ एक पहर तक जोर शोर से लड आखिर मर गये अभागे।

विश्व कल्याण व विश्व शांति की भावना भी उसके स्वरों में उभर कर आई है. इतने फूल खिले संग्रह में प्रकाशित उनकी यह खूबसूरत कविता है-नदी चली जाएगी यह न कभी ठहरेगी/उठ जायेगी शोभा, रोके यह न रुकेगी/ झर जायेंगे फूल, हरे पल्लव जीवन के/पड़ जायेंगे। पीत एक दिन शीत मरण से/रो रो कर भी फिर न हरी यह शोभा होगी/नदी चली जायेगी यह न कभी ठहरेगी. इतने फूल खिले कविता जिसके नाम से पहाड के संर्ग्ह का नामकरण हुआ है में कवि की आंतरिक वेदना मुखरित होकर आई है- फूलों की जब चाह मुझे थी/ तब कांटे भी नहीं मिले/ जब शशि की थी चाह मुझे/ तब जुगनू भी न कहीं निकले/ आशा और निराशा सब कुछ/ खो में जग में घूम रहा/ अब पग पग पर मिलते मुझको क्यों ये इतने फूल खिले।

गोविंद चातक ने उन्हें सौंदर्यबोध, पीडा और चेतना के चंद्रकुंवर संबोधित किया है. मंगलेश डबराल इसी संग्रह में चंद्रकुंवर की वसीयत लेख में लिखते हैं- ’अपने उद्गगम को लौट रही अब बहना छोड नदी मेरी/ छोटे से अणु में डूब रही अब जीवन की पृथ्वी मेरी/ आंखों में सुख पिघल-पिघल ओंठो में में स्मिति भरता-भरता/ मेरा जीवन धीरे-धीरे इस सुंदर घाटी में मरता दृकई वर्ष पहले पढ़ी हुई चंद्रकुँवर बर्त्वाल की ये पंक्तियां आज भी विचलित कर देती हैं।

किसी नदी के अपने स्रोत की ओर, अपने जन्म की ओर लौटने का बिंब शायद किसी और कवित में नहीं मिलता. चंद्रकुँवर छायावादी कवि माने जाते हैं. लेकिन यह छायवाद का भी परिचित बिंब नहीं है.” उन्हें बहुत कम आयु मिली , मात्र अट्ठाईस वर्ष चौबीस दिन की आयु में 14 सितंबर 1947 में पँवालिया गांव में कवि का देहावसान हो गया. इतने ही समय मे कवि ने विशद लेखन किया है , उसका कहना है- मैं मर जाऊंगा पर मेरे जीवन का आनंद नहीं/ झरजायेंगे पत्र कुसुम तरु पर मधु प्राण वसंतन नहीं./ सच है घन तम में खो जासते स्रोत सुनहलेदिन के,/ पर प्राची से झरने वाली आशा का तो अंत नहीं।

Tirth Chetna

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *