आत्मा की वैक्सीन और हिंदी-कविता

आत्मा की वैक्सीन और हिंदी-कविता
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एक किताब
किताबें अनमोल होती हैं। ये जीवन को बदलने, संवारने और व्यक्तित्व के विकास की गारंटी देती हैं। ये विचारों के द्वंद्व को सकारात्मक ऊर्जा में बदल देती है। इसके अंतिम पृष्ठ का भी उतना ही महत्व होता है जितने प्रथम का।

इतने रसूख को समेटे किताबें कहीं उपेक्षित हो रही है। दरअसल, इन्हें पाठक नहीं मिल रहे हैं। या कहें के मौजूदा दौर में विभिन्न वजहों से पढ़ने की प्रवृत्ति कम हो रही है। इसका असर समाज की तमाम व्यवस्थाओं पर नकारात्मक तौर पर दिख रहा है।
ऐसे में किताबों और लेखकों को प्रोत्साहित करने की जरूरत है। ताकि युवा पीढ़ी में पढ़ने की प्रवृत्ति बढे। इसको लेकर हिन्दी न्यूज पोर्टल www.tirthchetna.comएक किताब नाम से नियमित कॉलम प्रकाशित करने जा रहा है। ये किताब की समीक्षा पर आधारित होगा। ये कॉलम रविवार को प्रकाशित होने वाले हिन्दी सप्ताहिक तीर्थ चेतना में भी प्रकाशित किया जाएगा।

कुमार मंगलम
आचार्य शुक्ल ने कविता की आवश्यकता और कवि-कर्म की बढ़ती हुई कठिनाई के लिए मनुष्य के वृत्तियों पर सभ्यता के नए आवरण को बदलाव का प्रमुख कारण माना है, ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नए-नए आवरण चढ़ते जाएंगे त्यों-त्यों एक ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जाएगी, दूसरी ओर कवि-कर्म कठिन होता जाएगा।

इस वाक्य को लिखते हुए आचार्य शुक्ल को शायद ही यह एहसास होगा कि इक्कीसवीं सदी अपने आरम्भ में ही महामारी का एक ऐसा दौर देखेगा जो सभ्यता के पूरे रूप को ही आमूलचूल बदल कर रख देगा। हममें से किसी को यह एहसास तक नहीं था कि आज के न्यूज चैनलों पर वायरल होने वाले समाचार की तरह एक अदृश्य बीमारी ऐसे फैलती जाएगी कि सम्पूर्ण विश्व एक आकस्मिक स्थगन का शिकार हो जाएगा।

कोरोना का फैलना अप्रत्याशित था अथवा इसे लेकर कई तरह के भ्रम-जाल सत्ता एवं समाचार चैनलों द्वारा प्रसारित किए जा रहे थे। लेकिन हालात ऐसे बनते चलते गए कि सम्पूर्ण विश्व इस महामारी के जद में आ गया। अब उन कारणों का पड़ताल सरकारी एजेंसी करें तो करें। यथार्थ यह कि महामारी से बचाव के लिए जो सबसे त्वरित उपाय सूझा सम्पूर्ण बंदी का उसे बग़ैर बिचारे आनन-फानन में लगा दिया गया। हम सभी अचानक घरबन्दी का शिकार हो गए, सबने अपने तरीके से इसे काटा, सबके अपने संघर्ष और उन संघर्ष की अपनी कहानी और उससे निपटने के तरीके अलग-अलग थे।

कोरोना-संकट इस सदी के लोगों के लिए अप्रत्याशित और अयाचित स्थिति थी। हमारी शक्तिशाली कल्पना भी इस स्थिति के लिए तैयार नहीं थी। ऐसे में कवि श्रीप्रकाश शुक्ल ने मेहनत का रास्ता अख़्तियार किया और इस महामारी में महामारी के इतिहास और साहित्य की अन्तर-सम्बद्धता और अन्तर-सूत्रता की तलाश शुरू की। जिसके परिणाम स्वरूप
महामारी में कविता : कोरोजीविता से कोरोजयता तक अब हमारे सामने प्रस्तुत है। इस किताब का मुख्य विषय या चिंता महामारी के कारणों का पड़ताल नहीं बल्कि महामारी के क्रूरतम यथार्थ को स्वीकार कर साहित्य को एक वैकल्पिक उम्मीद के रूप में देखना है। इस महामारीतुर और महामारीकुल समय में कविता जितनी निरर्थक बन गयी प्रतीत होती है, उससे अधिक आवश्यक लगने लगी। जिसकी पड़ताल रेगिस्तान में स्वाति की बूँद की तलाश है।

यह उम्मीद की वह कमल-तंतु बनी जिससे मानवीय अस्मिता के समग्र को निमज्जित किया जा सके। अपने समय-संबद्धता, किफ़ायतशियारी और कांतासम्मत उपदेश के कारण कविता में सम्भवतः वह अवकाश लेखक को नहीं मिला हो। श्रीप्रकाश शुक्ल ने कविता से विलग अपनी चिंतन की धारा को इस महामारीहत समय में आलोचना की तरफ मोड़ा बल्कि उससे कहीं अधिक खोज की तरफ मोड़ा और परंपरा से संवाद की एक स्थिति बनाई।

महामारी के इतिहास और वर्तमान को एक साथ चिंतन के निकष पर कस कर महामारी के ऐतिहासिक पड़ताल से निर्मित सिद्धांत के लिए और रैदास, तुलसीदास, निराला, राजेश जोशी, अरुण कमल, मदन कश्यप की कविताओं और वर्तमान में लिखी जा रही कविताओं के मूल्यांकन से रचना में महामारी के तत्वों और उम्मीद की शिनाख़्त के लिए शोध और आलोचना का शिल्प ही लेखक को कारगर लगा।

महामारी को लेकर सत्ता, इतिहासविद्, समाज-शास्त्री और साहित्यकार अपने तरह से सोचते हैं। सबकी अपनी पद्धति है लेकिन जो विदग्धता और संवेदनशील सचाई साहित्यिकों के पास है वह शायद की किसी अन्य अनुशासन के पास हो। हिंदी में सम्भवतः किसी महामारी और कविता के अन्तर-सम्बद्धता को उजागर करने वाली यह पहली किताब है। मेरी जानकारी में तो पहली ही है। यह किताब महामारी के बावुजूद लिखी जा रही कविता के युगबोध की उपस्थिति और उस इतिहासबोध की अन्तर्दृष्टि से उपजी है जो अंततः और प्रथमतः उम्मीद के शिरे को कस कर थामे रहती है।

यह महामारी का समय है लेकिन महामारियों के इतिहास को देखें तो चेचक, हैजा, फ्लू, स्पेनिश फ्लू और प्लेग जैसी महामारी समय-समय पर वैश्विक रूप अख्तियार करती रही हैं। और इन महामारियों के समय को उस समय के रचनाकारों ने अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त किया है। महामारी के समय में जहाँ सत्ता जनता को डरा कर शासन करने के उपाय खोजती हैं वहीं रचनाकार की चिंता मनुष्यता को बचाने की होती है।

‘महामारी और कविता’ उन्हीं कविताओं की तलाश और पड़ताल है। लेखक श्रीप्रकाश शुक्ल महामारी का विवेचन करते हुए रैदास, तुलसीदास, निराला, राजेश जोशी, वरवर राव, अरुण कमल, मदन कश्यप, स्वप्निल श्रीवास्तव, सुभाष राय, से लेकर रश्मि भारद्वाज, कर्मानंद आर्य, अमरजीत राम, प्रतिभा श्री, गोलेंद्र पटेल तक की कविताओं का विवेचन करते हैं।
इस क्रम में उर्दू के लेखक राजेन्द्र बेदी की कहानी क्वारण्टीन, अल्बर्ट कामू का उपन्यास द प्लेग, जोसे सारामागो का उपन्यास ब्लाइंडनेस, गेब्रियल गार्सिया मार्खेज का उपन्यास लव इन द टाइम्स ऑफ़ कॉलरा, निराला का उपन्यास कुल्लीभाट, रेणु की कहानी पहलवान की ढ़ोलक, नागार्जुन की कविता प्रेत का बयान और मार्टिन लूथर किंग, गेल ओम्वेट, चिन्मय टुम्बे,रामिन जहान्बेंग्लू,मार्क होनिग्स्बौम,रोबर्ट डी कप्लन, नार्मन ईरोसेन्थल, लियो बरादाकर इत्यादि विचारकों के पास भी जाते हैं।

कविताओं के विवेचन में परम्परा और समकालीनता को साथ एक खोजी निगाह से संवाद करते हैं। “रविदास अपने समय के संत्रास व आपदा से बचने के लिए ईश्वर की नहीं, कविता की शरण में जाते हैं।”, “मृत्यु के भयानक दृश्यों के बीच देवताओं का भागना व राजा का कर्तव्य से पलायन कर जाना किस तरह दर्ज है।

बनारस के प्रसंग में तुलसी इन महामारियों का बहुत ज्यादा जिक्र करते हैं।”, “महामारी के मानस के भीतर से मनुष्यता की मांगलिक सर्जनेच्छा का विधान रचने वाले निराला हमारे समय के महान कवि हैं जिनकी प्रेरणा से आज भी हम बहुत कुछ सीखते हैं। जहाँ नेपथ्य से कोई प्रलय की छाया का पाठ करता हुआ दिखाई देता है जहाँ सड़कों पर सन्नाटा पसारने के साथ एक भयानक पागलपन पलता रहता है घरों के भीतर”, “महामारी में ईश्वर का अस्तित्व सबसे ज्यादा प्रश्नांकित होता है और पुरस्कृत भी।

“आज की महामारी का चरित्र तकनीकी व राजनीति के कारण पूरी तरह से बदल गया है। आज यह जैविक (बायोलॉजिकल) ही नहीं वैचारिक (आइडियोलॉजिकल) भी हो गयी है। आज यह वायरस जनित ही नहीं विचार जनित भी हो गयी है।”, “निरीश्वरता भी एक तरह से समकालीन दबाव ही है।”, “ऐसी महामारी में चिकित्सक हमारे लिए भगवान और रक्षक की भूमिका में हो जाते हैं और यदि हम भगवान न भी कहें तो कम-से-कम रक्षक की भूमिका में वे हमारे बीच तो होते ही हैं।” उपरिवत उद्धरणों के मार्फत से इस किताब की चिंता को समझा जा सकता है। ये वे उद्धरण हैं जो अलग-अलग अध्याय से लिए गए हैं। कहीं साहित्य-विवेचन, कहीं कोरोनाकालीन कविता की कैनन-निर्माण, कहीं इतिहास-विवेक तो कहीं परिवेशगत संलग्नता को समझने के दौरान निर्मित हुई है।

यह एक रचनाकार का धर्म बन जाता है कि अपने समय को परिभाषित करते हुए वह अपने समय को समझे और उससे वे सूत्र तलाशे जो न सिर्फ भविष्य को संबोधित हो बल्कि उस भविष्य को एक सार्थक आकार दे सके। कोरोना महामारी ईश्वरत्व और मनुष्यत्व दोनों पर एक साथ विचार का अवकाश भी दे रहा था और चुनौतियाँ भी उछाल रहा था। यह एक ऐसा समय था जिसमें सबसे अधिक चुनौती हमारी सामूहिकता को थी। दृश्य था किन्तु आभासी। गति था लेकिन ठहराव हावी था।

उपस्थिति थी किन्तु अनुपस्थिति अधिक मुखर थी। कोरोनाकालीन इस समय को इन्हीं आयामों से ‘महामारी और कविता : कोरोजीविता से कोरोजयता तक’ में लेखक एक आकार देने की सफल कोशिश करता है। जहाँ साहित्य ऐतिहासिक प्रमाण बन जाता है। यह पड़ताल जयता की ओर उन्मुख है। यह किताब यह सिद्ध कर देती है कि कविता उम्मीद का सबसे सबल माध्यम है। ‘महामारी और कविता’ अपने विश्लेष्ण में भक्तिकाल से अब तक की कविता की पड़ताल करती है। इस दरम्यान के कवि सियारामशरण गुप्त की कविता ‘एक फूल की चाह’ कविता की ओर कृतिकार का ध्यान आकर्षित कराना चाहता हूँ कि आगे के संस्करण में वे इसे भी शामिल करेंगे।

सियारामशरण गुप्त की कविता संभवतः प्लेग के समय की है। कविता है- “उद्वेलित कर अश्रु-राशियाँ/ह््रदय-चिताएँ धधकाकर/ महा महामारी प्रचंड हो/ फ़ैल रही थी इधर उधर/ क्षीण-कंठ मृतवत्साओं का/ करुण रुदन दुर्दांत नितांत/ भरे हुआ था निज कृश रव में/ हाहाकार अपार अशांत” महामारी और कविता’ एक कवि का गद्य है जो आलोचना और शोध के संधि पर दिखाई देता है जिसकी भाषा काव्यात्मक है लेकिन बुनावट और चिंता शोध-निष्कर्षों पर आधारित है। इसे ‘आपदा में अवसर’ के रूप में नहीं ‘कोरोना में क्रिएशन’ के रूप में देखा जाना चाहिए। आपदा में अवसर’ जहाँ राजनैतिक शब्दावली है, वहीं ‘कोरोना में क्रिएशन’ साहित्यिक और वैचारिक।

सत्ता अवसर तलाशती है और साहित्य संभावनाएँ। यह किताब जीवन की उन्हीं संभावनाओं की तलाश है जो महामारी की वजह से उत्पन्न मृत्यु के विकराल तांडव में जीवन का गुण-सूत्र धुंधला-सा गया था। यह किताब महामारी से उत्पन्न उन शेड्स की पड़ताल करती है जिसे साहित्य ने अपने भीतर दर्ज किया है। जीविता से जयता की यात्रा करने वाली यह किताब हिंदी लोकवृत के उम्मीद का जीवद्रव्य है।
                                                              लेखक उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं।

Tirth Chetna

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