विधायकों की जुबां पर क्यों नहीं आती नए जिलों की बात
ऋषिकेश। आखिर उत्तराखंड के विधायकों की जुबां पर नए जिलों के गठन की बात क्यों नहीं आती। क्यों 21 सालों में मुख्यमंत्री तहसील स्तर से आगे नहीं बढ़ सकें। इसको लेकर अब सवाल खड़े होने लगे हैं। राजनीतिक दलों का इस मुददे पर सत्ता में रहते हुए कुछ और विपक्ष में रहते हुए अलगे स्टैंड से लोगों में नाराजगी है।
नेताओं को अलग राज्य इसलिए चाहिए था कि वो विधायक, मंत्री और मुख्यमंत्री बन सकें। ऐसा भी हो गया। छोटे राज्य के हिमायती उत्तराखंड के नेता छोटे जिलों के हिमायती कतई नहीं हैं। यही वजह है कि 21 साल में राज्य में एक भी नया जिला नहीं बना।
राज्य गठन के समय उत्तराखंड में 48 तहसील थी अब सौ से अधिक हैं। यानि मुख्यंत्रियों ने खूब तहसीलें बनाई। तहसील स्तर से आगे कोई नहीं बढ़ सका। 2011 में तत्कालीन मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल निशंक ने जरूर चार जिलों के गठन का ऐलान किया था। मगर, भाजपा ने ही उनके ऐलान को पंक्चर कर दिया।
दरअसल, उत्तराखंड के विधायकों की जुबां जिलों के नाम पर बंद हो जाती है। माना जाता है कि विधायकों को जिले का गठन अपनी राजनीतिक हैसियत को प्रभावित करने वाला लगता है। यही वजह है कि कुछ विधायकों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश नए जिलों के गठन की मांग की खिल्ली उड़ाते हैं।
हैरानगी की बात ये कि कभी जिले के लिए आंदोलन करने वाले नेता विधायक बनते ही जिले के सबसे बड़े विरोधी हो गए। जिलों के समर्थक अब थकने लगे हैं। कुछ समर्थक विधायक निधि से काम पाकर निहाल हो रहे हैं।
राजनीतिक दलों को तो इसको लेकर रवैया हैरान करने वाला है। विपक्ष में रहते ही नए जिलों के गठन को लेकर कुछ और स्वर होते हैं और सत्ता में कुछ औॅर। भाजपा और कांग्रेस के इस खेल को लोग अब समझने भी लगे हैं।
2017 में उत्तराखंड की जनता ने भाजपा को प्रचंड बहुमत दिया। उम्मीद थी कि भाजपा इस बहुमत का उपयोग राज्य के हित में करेगी। कुछ नए जिलों का गठन होगा। मगर, ऐसा नहीं हुआ। बहुमत के दम पर भाजपा सरकार ने सिर्फ देवस्थानम बोर्ड बनाया।