महिलाओं को टिकट देने के मामले में राजनीतिक दलों की कंजूसी
राजनीति दलों की राजनीति में आधी आबादी हाशिए पर है। राज्य और देश की बड़ी पंचायतों में उनकी हिस्सेदारी ना के बराबर है। ये समानता के अधिकार का एक तरह से हनन है। कांग्रेस ने यूपी में 40 प्रतिशत टिकट देने की अच्छी पहल की है।
त्रिस्तरीय पंचायत में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ी है। तमाम इत्तर बातों के धीरे-धीरे ही सही राजनीति के इस स्तर में सुधार भी दिख रहा है। ये अच्छी बात है। मगर, राज्यों की विधानसभा और देश की लोकसभा में महिलाओं की हिस्सेदारी ना के बराबर है।
आबादी के अनुपात में देखें तो 10-12 प्रतिशत महिलाएं ही एमएलए और एमपी बन पा रही हैं। ये चिंता की बात है। समानता के अधिकार की बात करने वाली व्यवस्था को इस पर गौर करना चाहिए। आधी आबादी को उसका पूरा हक मिलना चाहिए।
इस हक को दिलाने में राजनीतिक दलों को आगे आना चाहिए। महिलाओं को भी दल में रहते हुए इसके लिए दबाव बनाना चाहिए। अभी तक राजनीतिक दल जीत सकने वाले फार्मूले पर महिलाओं की उपेक्षा करते रहे हैं।
उपेक्षा किस कदर हो रही है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश में 4896 सांसद/विधायकों की संख्या में महिलाएं पांच सौ भी नहीं हैं। लोकसभा में महिला सांसदों का आंकड़ा 100 तक नहीं पहुंचा। राज्य सभा में महिलाओं की संख्या 40 से कम है। यही हाल राज्य की विधानसभाओं का है।
हां, राजनीतिक दलों के कार्यक्रमों को घर-घर तक महिलाएं ही गंभीरता से पहुंचाती हैं। इसका लाभ राजनीतिक दलों को चुनाव में मिलता है। मगर, जब एमपी और एमएलए की टिकट की बात आती है तो महिलाओं को एक तरह से पीछे धकेल दिया जाता है।