उत्तराखंड को दोनों हाथों से लूटने की राजनीति
सुदीप पंचभैया ।
लोकतंत्र में राजनीति का मतलब जनहित से है। अलग-अलग विचार, मन, मत और मंतव्य में जनहित/राजहित का अभिष्ठ होना आवश्यक है। मन, बचन और कर्म में भी इसकी झलक देखने को मिलनी चाहिए। अब ये सब किताबी बाते हैं।
अब राजनीति का अभिष्ठ सत्ता बन गई है। इसको पाने के लिए राजनीति के वोटजनित अंक गणित को साधना ही उददेश्य रह गया है। इसके मूल में स्वहित की भावना होती है और जनहित हाशिए पर होते हैं और इनकी दुहाई भर देनी होती है। राजनेता इस काम में तो माहिर बन चुके हैं।
देवभूमि उत्तराखंड ऐसी राजनीति का अच्छा उदाहरण है। राज्य गठन के 21 सालों में लोगों ने यही कुछ देखा। पांचवीं विधानसभा के लिए हो रहे चुनावों ने तो राज्य के लोगों के सारे भ्रम दूर कर दिए। दिल्ली के नारों में मशगूल लोग हतप्रभ हैं। न कोई विचार और न कोई धारा। राजनीतिक दल सिर्फ सत्ता पाने के लिए लोगों को भ्रमित कर रहे हैं।
बहरहाल, इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि उत्तराखंड राज्य को दोनों हाथों से लूटने की राजनीति हो रही है। राज्य लूट भी चुका है। लूट के इस राजनीतिक खेल में अब पहाड़ी राज्य अपने मूल पहचान भी खोने लगा है। लोग इसे महसूस भी करने लगे हैं। मगर, इसे रोकने के लिए आगे आने को तैयार नहीं हैं।
लोग दिल्ली से नियंत्रित राजनीति के मोहपाश से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। यही सबसे बड़ी दिक्कत है। परिणाम राज्य एक तरह से खाला का घर बन गया है।
मूल निवासियों को सत्ताधीशों ने स्थायी निवास की मुहर लगवाने को मजबूर कर दिया। हैरानगी इस बात की है कि राष्ट्रीय राजनीतिक दलों में शामिल उत्तराखंड के नेता इस पर मुंह तक नहीं खोल सकें। वजह किसी को सीएम बने रहना था, किसी को मंत्री और किसी को विधायकी का टिकट सुरिक्षत करना था। राज्य बनने के बाद पहाड़ी राज्य का यही सबसे बड़ा दुभाग्य है।
संसाधनों से पैदा होने वाले अर्थतंत्र में राज्य के मूल निवासी ना के बराबर हैं। मैदानी क्षेत्र से शुरू हुआ जमीनों की खरीदफरोख्त का खेल अब डांडी कांठयूं तक पहुंच गया है। हालात लगातार चिंताजनक हो रहे हैं। राज्य बनने से पहले भी पहाड़ी क्षेत्र की ऐसी दुर्दशा कतई नहीं थी।
राज्य में हो रही लूट की राजनीति को कोई बड़े नारे के साथ तो कोई बेहद संकीर्णता के साथ कर रहा है। कोई आंसू निकालकर अपने हित साध रहा है तो कोई दिल्ली में बैठे नेताओं की चापलूसी से काम निकलवा रहा है। हर किसी को लूट के बाद प्रोटेक्शन की जरूरत पड़ रही है। राज्य के कथित बड़े नेताओं के मात्र दो राजनीतिक ठौर होना इस बात का प्रमाण है।
नेता दिल्ली से नियंत्रित एक राजनीतिक दल से हटते हैं और दूसरे में शामिल हो जाते हैं। उत्तराखंड के नेताओं की इन हकरतों से स्वाभिमान पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं। उक्त बड़े नेताओं ने कभी भी क्षेत्रीय राजनीति को उभार देने का प्रयास नहीं किया। उल्टे राज्य के सवालों के लिए प्रतिबद्ध क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को हतोत्साहित किया।
कुल मिलाकर 70 विधानसभा सीट वाले इस राज्य की राजनीति में वो कुछ दिख रहा है जो यहां की मूल प्रवृत्ति से बिलकुल भिन्न है। ये चिंता की बात है और लोगों को इस पर गौर करना चाहिए। अगले एक दशक में और भी बहुत कुछ बदलने वाला है। राजनीति मैदान में उतरने वाली है। इसके संकेत भी मिलने लगे हैं। अभी नहीं चेते और अभी नहीं सोचा तो बड़ी राजनीतिक ठगी के शिकार हो जाएंगे।