नेता तो वो थे अब तो सत्ता पाने की होड़ है

डा. मधु थपलियाल।
चुनाव लोकतंत्र का लोकोत्सव होते हैं। इस लोकोत्सव में जनता जनार्दन होती है। जनता निर्णय लेती है और विभिन्न स्तर के पंचायत के लिए अपना नुमाइंदा चुनती है। ये स्वस्थ परंपरा है। कभी चुनाव ऐसा ही होता था। मगर, अब ऐसा नहीं है। वजह अब वैसे नेता नहीं रहे। अब सत्ता पानी की होड़ है। इसमें नेता नहीं प्रत्याशी ही दिख रहे हैं।
आजकल उत्तराखंड में भी चुनावी शोर मचा है। इस शोर में लोकोत्सव के बजाए सत्ता पाने का लालच अधिक है। इसमें समाज को जागरूक और जिम्मेदार बनाने का बोध दूर-दूर तक नहीं है। धनबल और हो हल्ला कर सत्ता पाने पर जोर है।
अगर मैं याद करूँ तो मुझे सन १९८४ का लोक सभा का चुनाव याद आता है. उस दौर में न तो सोशल मीडिया इतना विकसित हुआ था, और ना ही टी० वी० हर घर में होते थे. तब वो चार टांगो वाले सफ़ेद-काले, शटर जैसा स्क्रीन कवर वाले टी० वी० यदा कदा घरों में होते थे. प्रचार के अलग तरीके थे ।
नेताओं के सिद्धांत थे और चुनाव सिद्धातों पर लड़े जाजे थे। मंचों पर जब भाषण होते थे तो राष्ट्रीय और अंतर-राष्ट्रीय नीती की बात होती थी। चाहे वो भाषण देश के किसी भी राज्य, जिले या गाँव में हो रहे हो, मंचों से न तो कोई देश को बाँटने की न पाटने की बात करता था क्योंकि नेता को एक ऐसा आदर्श माना जाता था कि वो समाज को जोड़ने का काम करता है, एकता की बात करता है, और एक समृद्ध राष्ट्र की कल्पना करता है और तभी जनता उसकी अनुयायी बनती है।
ऐसा ही कुछ दौर मैंने भी देखा और आज का दौर देख कर में हतप्रभ हूँ, स्तब्ध हूँ निःशब्द हूँ। उथल पुथल सी लग रही है। सन 1984 का लोक सभा का चुनाव में मेरे पिता का० कमला राम नौटियाल जो कि मैं अगर ये कहूँ कि उत्तराखंड में उनके जैसा नेता नहीं हुआ है तो शायद अतिश्योक्ति नहीं होगी।
मुझे यह कहने पर गर्व महसूस होता है और वो चुनाव लड़ रहे थे. चुनाव का दौर था उनकी पार्टी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी जिसे कि एक बहुत ही गरीब पार्टी माना जाता है और शायद इसलिये कई लोग इसमें जाना नहीं चाहते थे। क्योकि सिद्धांतों की पार्टी होती थी. जहाँ तक मैंने देखा था मेरे पिता सिद्धांतवादी नेता थे। जनप्रिय नेता थे, अच्छा जनाधार था।
लोग सुदूर डांडी-कांठी से पैदल आकर उनके चुनाव में प्रचार के लिये रास्ते लग जाते थे, झंडे घर पर ही सिल रहे होते थे, अपने क्षेत्र का हर एक गावँ, हर एक पर्वत, हर एक पहाड़ की चोटी उन्होंने अपने पैरों से चल कर नापी थी। शायद ही उत्तराखंड का कोई व्यक्ति अंतिम छोर में पहाड़ की अंतिम घटी में ऐसा रहा हो जिस तक वो ना पहुचें हों, उसके दुख-दर्द को ना समझा हो।
विपक्ष में कांग्रेस के प्रत्याशी एवं तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री ब्रहम दत्त थे। उस समय का. कमला राम नौटियाल को लगभग 88-89 हजार वोट पड़े थे और कुछ हे मतों के अंतर से वे हारे थे, लेकिन ये सभी के लिए एक विस्मृत कर देने वाली बात थी कि एक कम्युनिस्ट नेता जिनका की कुछ भी धन-बल, नहीं है, जिन्होंने अपने पूरे क्षेत्र के बहुत हे दुर्गम स्थानों में पैदल चल कर प्रचार किया, अथाह और अपार जन समर्थन उनको मिलता रहा, क्योंकि उनकी एक छवि थी।
समाज के प्रति ऐसा समर्पण की अब कल्पना ही की जा सकती है। आज के चुनावी रंग ढंग और तौर तरीकों को देखकर लगता है कि वो नेता थे —- अब सिर्फ प्रत्याशी रह गये है।
उनकी इमानदारी और जनता के प्रति समर्पण, हिम्मत और शौर्य था, कि चाहे विपक्ष का कोई भी बड़ा नेता हो, चाहे वो तत्कालीन उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री स्वर्गीय हेमवती नंदन बहुगुणा जी हों, गृह मंत्री एस० बी० चव्हान हों, बलदेव सिंह आर्य रहे हों, ब्रहम दत्त जी रहे हों या किसी भी विपक्ष दल के नेता रहे हों, वो उनके बहुत प्रिय थे और सभी उनका बहुत सम्मान करते थे और यहाँ तक की कभी उनकी सलाह भी ले लिया करते थे।
ये उनकी इमानदारी का भय था कि उत्तरकाशी में जब भी किसी नये अधिकारी की पोस्टिंग होते थी तो वो उनके बारे में जरूर जानकारी ले लेता था, कि वहां एक इमानदार नेता है जो जनता के लिए समर्पित है। बहरहाल, वो समय याद दिलाता है कि वो जो मत थे, न शराब की नदियाँ बहती थी, न शराब में लोग बिकते थे, और नेता का मूल्यांकन होता था उसकी नेतृत्व क्षमता पर तब नेता चुने जाते थे।
तब राजनीती होती थी, राज्य तो सुदृढ़ बनाने के लिये अच्छी नीतियों को लाने वाला व्यक्ति। जब सन 1968 में टिहरी रियासत से उत्तरकाशी अलग हुआ, और चुनाव हुआ, तो पहली बार जब विधायकी का चुनाव हुआ, तब, का० कमला राम नौटियाल निर्दलीय चुनाव लड़े. इस चुनाव में अनोखी बात यह थी की ठाकुर बिशन सिंह के पास तब गाडी हुआ करती थी और का० कमला राम नौटियाल हमेशा की तरह पैदल जाया करते थे. प्रतिद्वंदी होते हुए भी ठाकुर बिशन सिंह अपनी गाडी में का. कमला राम नौटियाल की प्रचार सामग्री गंतव्य तक पंहुचा देते थे जो कि आज के समय में अकल्पनीय है।
पैदल चलते हुए, बिना किसी धन बल के एक फक्कड – इमानदार नेता को इतने मत मिले की उनकी वो विधायकी सीट को 37 सालों तक आरक्षित कर दिया गया। ताकि का० कमला राम नौटियाल कभी चुनाव न लड़ सकें। शायद ये डर सभी बाहू बली, धन-बल का प्रयोग करने वालों को सताने लगा कि अगर एक ईमानदार नेता जीत कर विधान सभा पहुच गया तो फिर क्या होगा? बेमानी नहीं चल पायेगी और माफिया राज नहीं चल पायेगा।
दौर बदलता गया. फिर मैंने सन १९९० से २००८ तक नगर पालिका और विधान सभा का चुनाव देखा। रातों रात चुनाव को शराब और धन-बल की वजह से पलटता देखा। लोगो को शराब पिला कर घरो में बंद करते देखा, और हर वो प्रयास देखा जिससे जैसे कैसे एक इमानदार नेता को रोका जाये। इतना डर था उस इमानदारी और सच्चाई का. ये तो कल्पना ही की जा सकती है कि यदी वो इमानदार, सिद्धांतवादी नेता उत्तरखंड की पहली विधान सभा में पहुच गया होता तो आज का उत्तराखंड कैसा होता।
शायद उत्तराखंड की दशा और दिशा दोनों ही कुछ और होता, ये उस दौर का हर व्यक्ति अच्छे से जनता है। आज हम देख रहे हैं की राजनीति- राजनीति नहीं बल्कि राज पाने की होड़ में नीती तो पूरी तरह से सफाचट है। आज असली मुद्दे गायब हैं, और शायद प्रत्याशियों ने जनता को इतना मुर्ख समझ लिया है कि वो इस- इस प्रकार की बातें करते हैं, जैसे कि चुटकुलों की वाद-विवाद प्रतियोगिता चल रही हो।
युवाओं को क्या दिशा दे रहा है आज का नेता और आज का चुनाव? जिधर भी देखिये युवा वर्ग, जो हमारे भारत के भावी रखवाले हैं, जो इस भारत वर्ष के भविष्य हैं, जिसे इस समय देश के विभिन्न नौकरियों में (आईएएस, पीसीएस तथा अन्य) जाने की तय्यारी करनी थी, वो आज के चुनावी दौर में रात होते ही “पर्ची” ले कर शराब की दूकान की ओर चल देते हैं या एक निश्चित “अड्डे” पर मिलते हैं।
क्या ऐसे उत्तराखंड राज्य या ऐसे भारत वर्ष की कल्पना की गयी थी? शायद आज समस्त उत्तराखंड समस्त भारत ऐसे नेतृत्व के लिये पलके बिछाये तरसती निगाहों से बैचैन होकर एक असमंजस में है और इंतज़ार कर रहा है जो उनके सपनो को साकार करने वाला काल्पनिक पात्र कभी तो आयेगा। शायद ऐसे पात्र हैं भी पर उनके बारे में जनता का यह विचार / मत रहता है कि “आदमी तो इमानदार है और बहुत अच्छा है पर गलत पार्टी में है”. “गलत पार्टी” वाली मानसिकता के चलते और इमानदार नेताओं के आभाव में – गावँ के गावँ बिक रहे हैं, पहाड़ के पहाड़ बिक रहे हैं, खेत-खलिहान, सेरे, गाड, गधेरे, नदियों के किनारे बिकने लगें हैं और ना जाने कब इस हिमालय और इन नदियों के बिकने की बारी आ जाये. लेकिन कोई आवाज उठाने वाला नहीं है।
ये सारे मुद्दे उन रंग बिरंगे झंडों से पटे शहरों और गांवों के पीछे धूमिल हो जाते हैं. शायद यह वो संक्रमण काल है जहाँ भ्रस्टाचार अपने चरम पर है, और ये निश्चित है कि वो समय भी आएगा जब उत्तराखंड को एक ऐसा नेतृत्व मिलेगा जो समस्त प्रदेश वासियों के अंतर मन को झकजोर देगा और तब सब मानेंगे कि ऐसा उत्तराखंड चाहिये था।