प्रकृति की सत्ता का आभार व्यक्त करने का पर्व फूलदेई
चैत्र संक्रांति पर्व पर विशेष
डा. नीलम ध्यानी।
प्रकृति के अनुशासन और उसकी नैसर्गिक सत्ता को स्वीकारने और उसका आभार व्यक्त करने का पर्व है फूलदेई। देवभूमि उत्तराखंड में इसे प्रकृति की व्यवस्थाओं के साथ साम्य स्थापित करने के रूप में मनाया जाता है। वास्तव में ये पर्व पर्यावरण संरक्षण और संवर्द्धन का माध्यम है।
इस वर्ष चैत्र माह की संक्रांति 14 मार्च को है। इस तिथि से पूरे एक माह यानि बैसाख संक्रांति तक उत्तराखंड में फूलदेई का पर्व मानाया जाएगा। ये पर्व पूरी तरह से प्रकृति और विज्ञान से जुड़ा है। इसकी एक-एक परंपरा में ऐसा देखा और महसूस किया जा सकता है। ये पर्व लोगों को बदलाव के लिए प्रेरित करने का पर्व है।
वास्तव में फूलदेई पर्व प्रकृति के अनुशासन और उसकी नैसर्गिक सत्ता को स्वीकारने और उसका आभार व्यक्त करने का पर्व है। इसे प्रकृति की व्यवस्थाओं के साथ साम्य स्थापित करने के रूप में मनाया जाता है। पतझड़ के बाद प्रकृति का श्रृंगार करने वाले फ्यूंली, बुरांश समेत तमाम फूल आम जन को तरोताजा करते हैं।
पर्वतीय क्षेत्रों के लिए ये ठिठूरन भरी सर्दी की विदाई और ग्रीष्म की दस्तक के रूप में होता है। फूलदेई पर्व इन्हीं बातों का संकेत है। ये आम जन को ऋतु परिवर्तन की सूचना है। प्रकृति के इस संकेत को स्वीकार करने का पर्व है फूलदेई।
फूलदेई पर्व में छोटी बच्चियां अपने कोमल हाथों से प्रकृति के कोमल फूलों जिसमें फ्यूंली प्रमुख रूप से शामिल होती है को तोड़कर लाते हैं। इन फूलांे के लिए बेटियां पौ फटने से पहले बांस की टोकरियां लेकर निकल जाती हैं। टोकरी में ताजे फूल लेकर घर की देहरियों यानि मुख्य द्वार पर सलीके से रख देती हैं। ऐसा करते हुए बेटियों प्रकृति से घर की खुशहाली की कामना करती हैं।
कालांतर में इस प्रक्रिया को संगीतबद्ध भी किया गया है। इन दिनों आम जन इन लोक गीतों का जरूर गुनगुनाता है। बहरहाल, पीली फ्यूंली और लोकपर्व फूलदेई उत्तराखंड की संस्कृति में कई तरह से शामिल हैं। विवाहित बेटियां ससुराल में फूलदेई पर्व के माध्यम से मायके में अपने बचपन को याद करती हैं। ये यादें उन्हें बच्चों को फूलदेई के बारे में बताने के लिए प्रेरित करती हैं। ये परंपरा सालों-साल से चली आ रही है। दरअसल, ये प्रकृति के प्रति आभार व्यक्त करने का तरीका है।
हां, हाल के सालों में इसमें पहले की अपेक्षा उत्साह कम देखा जा रहा है। ये चिंता की बात है। शहरीकरण के साथ ही पाश्चात्य के अंधानुकरण का असर फूलदेई लोक पर्व पर भी कई तरह से दिख रहा है। इस पर गौर करने की जरूरत है। नौनिहालों को फूलदेई की कहानी सुनाने भर से काम नहीं चलेगी।
बेटी को फूल तोड़कर देहरियों पर रखने के तौर तरीके बताने होंगे। इसको और रूचिकर बनाने के प्रयास भी करने होंगे। इसके पीछे के तथ्य बच्चों को समझाने होंगे। ताकि बच्चे भी प्रकृति की सत्ता और प्रकृति के अनुशासन को मानने के लिए प्रेरित हों।
वास्तव में ये पर्यावरण संरक्षण और संवर्द्धन का अच्छा माध्यम है। इस लोक पर्व को और अच्छे और प्रभावी ढंग से मनाने की जरूरत है।