प्रधानाध्यापकी के ग्यारह साल
एक किताब।
किताबें अनमोल होती हैं। ये जीवन को बदलने, संवारने और व्यक्तित्व के विकास की गारंटी देती हैं। ये विचारों के द्वंद्व को सकारात्मक ऊर्जा में बदल देती है। इसके अंतिम पृष्ठ का भी उतना ही महत्व होता है जितने प्रथम का।
इतने रसूख को समेटे किताबें कहीं उपेक्षित हो रही है। दरअसल, इन्हें पाठक नहीं मिल रहे हैं। या कहें के मौजूदा दौर में विभिन्न वजहों से पढ़ने की प्रवृत्ति कम हो रही है। इसका असर समाज की तमाम व्यवस्थाओं पर नकारात्मक तौर पर दिख रहा है।
ऐसे में किताबों और लेखकों को प्रोत्साहित करने की जरूरत है। ताकि युवा पीढ़ी में पढ़ने की प्रवृत्ति बढे। हिंदी न्यूज पोर्टल www.tirthchetna.com एक किताब नाम से नियमित कॉलम प्रकाशित करने जा रहा है। ये किताब की समीक्षा पर आधारित होगा। ये कॉलम रविवार को प्रकाशित होने वाले हिन्दी सप्ताहिक तीर्थ चेतना में भी प्रकाशित होगां। साहित्य को समर्पित इस अभियान का नेतृत्व श्रीदेव सुमन उत्तराखंड विश्वविद्यालय की हिन्दी की प्रोफेसर प्रो. कल्पना पंत करेंगी।
प्रो. कल्पना पंत ।
इस पुस्तक में लेखक ने अपने प्रधानाचार्य के रूप में अपने अनुभव और शैक्षिक उन्नयन के प्रयोगों को संजोया है लेखक के विचार से एक अच्छे शिक्षक की पहचान छात्रों का उसके प्रति लगाव है यह लगाव तभी जन्म लेता है जब अध्यापक भी उनके प्रति लगाव रखता हो। यह लगाव होता ही शिक्षक को, साधनों के अपर्याप्त होने पर भी विद्यार्थियों के भविष्य को संवारने के लिए प्रेरित करता है ।
लेखक के विचार से सरकारी शिक्षण संस्थाओं में जो विद्यार्थी प्रवेश लेते हैं उनमें से बहुतों के माता-पिता अशिक्षित होते हैं अधिकतर साधनों और संस्कारों दोनों दोनों की दृष्टि से पिछड़े हुए होते हैं। ऐसे माता-पिता बच्चों को सही परिवेश नहीं दे पाते हैं। यहाँ तक अपेक्षाकृत संपन्न परिवारों में भी बच्चों को बहुत अच्छा शैक्षिक परिवेश हो, आवश्यक नहीं है । दूसरी ओर साधनहीन विद्यालयों में भी अनेक ऐसे छात्र होते हैं जिनमें विलक्षण प्रतिभा होती है लेकिन समुचित संसाधन न मिलने के कारण उनकी प्रतिभा पल्लवित नहीं हो पाती।
फलतः छात्रों के सर्वांगीण विकास में शिक्षक का दायित्व और बढ़ जाता है। लेखक ने लिखा है कि मैं जहां भी रहा मेरे सर्वोपरि ध्यान छात्रों की बैठक व्यवस्था कमरों की प्रकाश व्यवस्था श्याम पदों की स्थिति सुधारने की ओर रहा इनमें भी गुरुजनों के लिए समुचित आसनों की व्यवस्था पर रहा। उसके विचार से यदि छात्रों को एक साफ-सुथरे सुव्यवस्थित कक्षा कक्ष में बैठने का अवसर दिया जाए तो उनमें से अधिकतर उस कक्ष की व्यवस्था को बनाए रखने का प्रयास करते हैं।
वह शिक्षक समुदाय की कमियों का उल्लेख करता हुआ कहता है “ कि मुझे बार-बार लगता है कि हम अध्यापक किसी समारंभ को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते। यदि शिक्षा प्रशासन पाठ्यक्रम बदलता है तो हमें अपने टाइप किए हुए ज्ञान के बेकार हो जाने और नए ज्ञान को अर्जित करने में होने वाले भारी कष्ट को देखकर असंतोष होता है“।
लेखक विद्यालय में पुस्तकालय की सुदृढ़ व्यवस्था का भी पक्षधर है । उसने एक अध्यापक के रूप में छात्रों द्वारा स्वयं संचालित छात्र सहायता पुस्तकालय और प्रधानाचार्य के रूप में एक सुव्यवस्थित पुस्तकालय, वाचनालय की व्यवस्था के साथ ही शैक्षिक वीडियो कार्यक्रमों के संचालन के अपने प्रयोगों का भी उल्लेख किया है।
लेखक ने लिखा है कि विद्यालय पत्रिका के लिए सामग्री संकलन में छात्रों को खुले मन से अपने विचारों को व्यक्त करने का अवसर दे कर मात्र २ घंटे का समय लगा और आलेखों की भाषागत त्रुटियों का निवारण करने के बाद उसके कलात्मक रूप में प्रकाशित कर दिया गया। इस पत्रिका की मौलिकता की विद्वानों, प्रतिष्ठित रचनाकारों और सामान्य नागरिकों द्वारा की गयी समीक्षा को भी पत्रिका के अगले अंक में स्थान दिया गया है।
लेखक विद्यालय प्रशासन में पारदर्शिता, और अनुशासन में खुलेपन का पक्षधर है। उसका मानना है की छात्रों को अपनी बात कहने का खुला अवसर दिया जाना चाहिए। यदि प्रधानाचार्य प्रशासकीय ग्रंथि से मुक्त होकर टीम के कैप्टन की तरह कार्य करे तो विद्यालय का सर्वांगीण विकास ही नहीं होता, अपितु छात्रों के व्यक्तित्व में भी निखार आता है।
लेखक ने एक प्रधानाचार्य के रूप में अपने अनुभवों के आधार पर अध्यापकों को वंदनीय, आत्मीय, पालनीय और झेलनीय कोटियों में विभक्त किया है। वह छात्रों के प्रति समर्पित अध्यापकों को वंदनीय, प्रधानाचार्य के साथ सम्बंध सापेक्ष्य कार्यशैली वाले अध्यापकों को आत्मीय, सेवानिवृत्ति की प्रतीक्षा करते अध्यापकों को पालनीय और नेताओं सम्पर्क के कारण मनमानी करने के अवसर खोजते अध्यापकों को झेलनीय कोटि में रखता है।
लेखक के शब्दों में “ झेलनीय अध्यापकों के संसर्ग में प्राप्त इस आत्मज्ञान से यह न समझ लें की इस विद्यालय ( राजकीय इंटर कालेज, रामनगर) में भले अध्यापक थे ही नहीं। भले अध्यापक नहीं होते तो इस विद्यालय में मेरे पाँच वर्ष के कार्यकाल में शैक्षिक उन्नयन के प्रयोगों के इतने अच्छे प्रतिफल मिल ही नहीं सकते थे। इसमें मैं तो केवल गाइड था। पहाड़ की विकट चढ़ाई को पार करने का मार्ग सुझा सकता था। छात्रों को हाथ पकड कर अभीप्सित ऊँचाइयों पर तो वे ही लोग ले गए थे। मैं केवल साधन जुटा सकता था, ओले पड़ने पर उनके ऊपर छाता तान सकता था पर सारी व्यवस्था तो उन्हें ही करनी थी और उन्होंने की “ यह पहली बार था कि किसी सामान्य सरकारी विद्यालय से न केवल लगभग बीस छात्र इंजीनयरिंग और मेडिकल कालेजों में चयनित हुए अपितु आइ आइ टी और राष्ट्रीय प्रतिभा खोज परीक्षा और अंतराष्ट्रीय मैथेमेटिकल ओलम्पियाड में भी सफल हुए।
लेखक के अनुसार इसमें तत्कालीन भौतिकी के प्रवक्ता राजीव पांडे, गणित के प्रवक्ता स्वरूप सिंह बंगारी और मंडलीय मनोवैज्ञानिक सुशील कुमार यादव के अनवरत सहयोग को सर्वाधिक महत्व दिया है।
लेखक की भाषा शैली प्रांजल और विषयवस्तु का विवेचन प्रेरणास्पद है।