योग का हो हल्ला और योग की वास्तविकता
प्रो. बीएस राजपूत
योग के प्रचार/प्रसार या कहें हो हल्ले के बीच योग की व्यापकता और वास्तविकता के साथ कहीं न कहीं समझौता हो रहा है। योग जैसी विरासत को इससे बचाना होगा।
वास्तव में योग करवाया नही किया जाता है। केवल कुछ व्यायाम, या आसन ही योग नही हैं। योग का पहला पाठ है पांच यम। और दूसरा पांच नियम । ये अभ्यास ह,ैं जिन्हे मनुष्य स्वयं करता है। कोई अन्य नहीं करा सकता।
योग के तीसरे और चौथे अध्याय हैं आसन और प्राणायाम। जिन्हंे कोई इनका जानकार बता सकता है पर इनका भी अभ्यास स्वयं ही करना पड़ता है। योग का अगला अध्याय है प्रतिहार जिसकी साधना साधक स्वयं करता है। कोई अन्य नही करा सकता।
योग के अन्य तीन अध्याय हैं क्रम से ध्यान, धारणा और समाधि। प्रत्येक को साधक स्वयं ही करता है। कोई अन्य करा नही सकता। केवल सिद्ध आध्यात्मिक सदगुरु मार्ग दर्शन कर सकता है पर करना सब कुछ साधक को स्वयं ही पड़ता है।
समाधि की उच्च तम स्थिति है निर्विकल्प समाधि जिसमे साधक की चेतना परम चेतना ( परमात्मा) से युग्मित हो जाती है तभी योग पूरा होता है। अनेक व्यक्ति कुछ आसान और प्राणायाम बता कर अज्ञानवश योग करने या कराने के भ्रम पालने का अहम कर लेते हैं।
मैं मूलतः अध्यापक हूं। इसलिए बिन मांगी शिक्षा भी देता रहता हूं। इसको अन्यथा मत लेना। ये सच्चे शिक्षक का नैसर्गिक स्वभाव होता है। मै योग गुरु नही हूं पर योग साधक हूं। ज्ञान मार्गी हूं। अनंत परमात्मा की अनंत सत्ता को स्वीकार करता हूं। मूलरूप से विज्ञान का शिक्षक और शोधार्थी हूं।
ज्ञान विज्ञान की शोध साधना में ही पूरा जीवन समर्पित है और अभी भी इसी साधना में रत हूं।मैं योग को एक वैदिक दर्शन मानता हूं । अन्य पांच वैदिक दर्शन भी इतने ही महत्व पूर्ण हैं जितना योग। ये अन्य पांच वैदिक दर्शन हैं। सांख्य, वैशेषिक, न्याय, मीमांसा तथा वेदांत । इन छह वैदिक दर्शनों के अतिरिक्त चार अवैदिक दर्शन भी हैंरूचारवाक, बौद्ध, जैन तथा तंत्र। इन सबका भी उतना ही महत्व है।
संपूर्ण आधुनिक विज्ञान केवल चारवाक के अवैदिक दर्शन पर आधारित है।चारवाक के इस अवैदिक दर्शन को प्राचीन भारतीय ऋषियों ने बार बार अस्वीकार किया था तथा प्राचीन भारतीय विज्ञान का आधार वैदिक दर्शनों को माना था। इसलिए प्राचीन भारतीय विज्ञान ज्ञान के उच्च तम शिखर तक पहुंच गया था जहा आज का विज्ञान न पहुंचा है और ना पहुंच सकेगा क्योंकि उसने चेतन तत्व को स्वीकार नही किया गया। इसलिए किसी को योग करवाने जा भ्रम मत पालो।
स्वयं योग साधना करो। पूरा जीवन ही योगमय बना लो। प्रत्येक कर्म को योग में स्थित रह कर करो। सभी कर्मों को निष्काम भाव से करने के अभ्यास की साधना करो। ये ही कर्मयोग है जिसका दार्शनिक आधार श्रीमद भगवद गीता है।
लेखक- पूर्व कुलपति एवं शिक्षाविद हैं।