उत्तराखंड में केंद्रीय विद्यालयों के प्रति दिवानगी क्या कहलाती है
ऋषिकेश। देश में स्कूली शिक्षा के लिए एक बोर्ड और समान शिक्षा के प्रयास को प्रयास करने के बजाए अब राज्यों में कुछ और एक्सरसाइज होने लगी है। ये एक्सरसाइज सरकारी स्कूलों पर भारी पड़ने वाली है।
उत्तराखंड में 2017 के बाद केंद्रीय विद्यालयों के प्रति हद दर्जे की दिवानगी देखी गई। राज्य सरकार ने अपने डेढ़ सौ से अधिक स्कूलों को सीबीएसई बोर्ड से संबद्ध कर दिया। इनके परिणाम भी नहीं देखे गए और इतने ही और स्कूलों को सीबीएसई बोर्ड से संबद्ध करने को लेकर चर्चा होने लगी।
अब करीब दो दर्जन केंद्रीय विद्यालय खोलने के भी प्रयास हो रहे हैं। विधायक इसके लिए जोर लगा रहे हैं। तर्क दिया जा रहा है कि केंद्रीय विद्यालयों में अच्छी पढ़ाई होती है। अंग्रेजी भी ठीक-ठाक होती है। निवर्तमान सरकार तो इससे पलायन रूकने तक का दावा करती रही है।
अब सवाल उठ रहा है कि जब प्रदेश बोर्ड का रंग-ढंग, पाठयक्रम पूरी तरह से सीबीएसई की तर्ज पर है तो फिर स्कूलों को सीबीएसई बोर्ड से संबद्ध करने की क्या जरूरत पड़ रही है। जनप्रतिनिधि केंद्रीय विद्यालयों के लिए जोर क्यों लगा रहे हैं।
दरअसल, सिस्टम के पास स्कूली शिक्षा के लिए समय नहीं है। सरकारी स्कूलों में लालफीताशाही हावी हो गई है। स्कूलों में भले ही प्रिंसिपल नहीं है, मगर, स्कूलों के औचक निरीक्षण के लिए डिप्टी ईओ, बीईओ, डीईओ, सीईओ आदि. आदि हैं।
इसका स्कूलों और शिक्षा को दूर-दूर तक लाभ नहीं होता। सरकारी शिक्षकों को सिस्टम ने शिक्षणेत्तर कार्यों में उलझा दिया है। समाज, स्कूल और शिक्षण का त्रिकोण कमजोर हो गया है। संबंधों में पहले जैसी मजबूती नहीं रही।