उत्तराखंड के वन आंदोलन और राज्य प्राप्ति के बाद बिकते जंगल
डा. मधु नौटियाल।
उत्तराखंडी समाज जल, जंगल और जमीन के संरक्षण के लिए जाना जाता है। पुरखों ने प्रकृति की व्यवस्थाओं के अनुरूप रहना सीखाया। अधिकांश भू-भाग वनाच्छादित होना इस बात का प्रमाण भी रहा है। मगर, अब ये आदर्श स्थिति तेजी से छीज रही है। विकास का भोंपू बजाकर जल को सोखा जा रहा है, जंगला सफाचट किए जा रहे और जमीन कंक्रीट के जंगल की भेंट चढ़ गई।
उत्तराखंड के जंगल, राज्य स्तर पर, तीन जोन में बांटे गए हैं – हिमालय, शिवालिक व तराई जोन । अगर देहरादून की बात की जाए तो यहां बांस, साल के जंगल, खैर और शीसम में वो सोना ह,ै जिस पर अंग्रेज भी खूब ललचाते थे। देश के बडे-बड़े जंगल के ठेकेदार की नजरों से भी ये पेड नहीं बच पा रहे हैं।
देहरादून का गोल्डन फॉरेस्ट कब कांक्रीट के छोटे-छोटे शहरों, शानदार होटलों में तब्दील हो गया। राज्य गठन के बाद एकदम से हुए इस बदलाव से हर कोई हतप्रभ है। देहरादून तो राजधानी है, व्यावसायिक हब है – जमीनों की खुर्द-बुर्द से लेकर गोल्डन फॉरेस्ट, पेडों का काटना यहां सामान्य सी बात हो गई।
ये सब विकास के नाम पर हो रहा है। अब अवशेष विकास सहस्त्रधारा, आशारोड़ी और थानो के जंगलों के साफ होने के बाद अस्तित्व में आएगा। ट्रेन के नाम पर कौडियाला-व्यासी के जंगलों पर बन आई है। ये मंजर सिर्फ देहरादून तक ही सीमित नहीं है। वरन ऐसी जगह जो आपने कभी सूनी भी ना हो जैसे उतरकाशी जनपद के कुमारकोट जैसे गांव – पूरे के पूरे बिक चुके हैं।
सरल ग्रामीण उत्तराखंडी बंजर खेतों को कम दामों में बेचकर खरीदने वाले धन्ना सेठों के यहां पगार पर काम करके खुश हैं। भू-कानून को बाहर निकालने में व्यवस्था को प्रसव जैसी पीडा हो रही है। राज्य की बेहतरी के लिए कड़ा भू-कानून जरूरी है। कथित विकास और रोजगार के नाम पर पहाड़ की जमीनों की खरीद फरोख्त तो थमनी ही चाहिए।
बहरहाल, अपनी जीवटता के लिए पहचानी जाने वाली उत्तराखंड की नारी अब व्यवस्था को खटक रही है। कारण वो सवाल कर रही है। जंगल के साथ उसके रिश्ते को कुचलने वाली व्यवस्था से उत्तराखंड की नारी दो-दो हाथ करने को तैयार है। महिलाओं ने अपनी मेहनत के बूते पहाड़ को जिंदा रखा है। वो हर दिन पानी के लिए जूझती और खेतों में खपती है। वो प्रकृति के संरक्षण में सबसे आगे है।
अब ये नारी भी व्यवस्था को खटकने लगी है। हालात इतने शर्मनाक हैं कि अपने ही जंगल से चारा पत्ती घास ले जाने वाली महिलाओं को उनके बच्चे सहित थाने की हवा खिलाई जा रही है। जहां गाय को एक ओर गौ-माता कह कर पूजा जा रहा है, वही दूसरी ओर उस गाय के चारे के लिए उस माँ को जो बोल सकती है जो श्रृष्टि की रचना करती है, जो घर की धुरी होती है, उसको अपने छोटे से बच्चे सहित इतना बेईज्ज़त किया जा रहा है। इससे बड़ा दुर्भाग्य इस देव भूमि का नहीं हो सकता।
कौन नहीं जानता कि उत्तराखंड राज्य निर्माण में सबसे बड़ी भूमिका महिलाओं की रही है। उसी नारी का अपमान कितनी बड़ी विडम्बना है। ये वक्त है की सभी उत्तराखंडियों को एक जुट हो कर उस महिला के और उसके सम्मान के साथ खड़ा होना चहिए। उस नादान बच्चे के सम्मान में उसके साथ खड़ा होना चाहिये, जिससे बड़े होकर उसके स्मृति पटल पर ये कभी ना रहे कि ऐसा था मेरा उत्तराखंड जहाँ दो पत्ती के लिए वो थाने में अपनी माँ की गोद में दुबक कर घंटों तक बैठा रहा। “नहीं चाहते हम अपने उत्तराखंड के ऐसी छवि”।
उत्तराखंड के प्रमुख वन आंदोलनों ने समय-समय पर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पटल पर दस्तक दी है। रवांई आंदोलन नें आजाद पंजायत की घोषणा कर रियासत के खिलाफ विद्रोह शुरु किया। इस आंदोलन के दौरान 30 मई 1930 को दीवान चक्रधर जुयाल की आज्ञा से आंदोलनकारियों पर गोलियां चला दी जिससे सैकडों किसान शहीद हो गए।
आज भी इस क्षेत्र में 30 मई को शहीद दिवस के रुप में मनाया जाता है। चिपको आंदोलन ने 70 के दशक में बांज के पेडों की अंधाधुंध कटाई के कारण विशाल रूप लिया और यह नारा दिया गया था “हिमपुत्रीयों की ललकार, वन नीति बदले सरकार” और “वन जागे – वन वासी।
जंगल बचाने का देवभूमि उत्तराखंड का इतिहास रहा है। जंगल, जल और प्रकृति बचाने के लिए यहां तमाम बड़े आंदोलन हुए। इसमें नैनीताल जिले का 1977 का वन आंदोलन एक राज्य स्तरीय आंदोलन था। चमोली जनपद का डुंग्री पैंतोली आंदोलन, पौडी गढवाल का पाणी राखो आंदोलन, रक्षासूत्र आंदोलन दृ नारा दृ ऊंचाई पर पेड रहेंगे, नदि, ग्लेशियर टिके रहेंगे, मैती आंदोलन और अब हेलंग का चारापत्ती आंदोलन।
लेखक जिला पंचायत के पूर्व सदस्य और प्रकृति प्रेमी हैं।