रोडवेज की हालत सुधरी और सरकारी स्कूलों की बिगड़ी
देहरादून। राज्य की रोडवेज की बसें अब चकाचक नजर आती हैं। मगर, सरकारी स्कूलों में ऐसा सुधार दूर-दूर तक देखने को नहीं मिल रहा है। परिणाम समाज बाजारी स्कूलों की ओर दौड़ लगा रहा है। एक के बाद एक प्रयोगों से स्कूलों की आंतरिक सेहत बिगड़ रही है।
90 के दशक में रोडवेज की बसों के बारे में एक मजाक होता था कि बसों में हॉरन के अलावा सब कुछ बजता है। इस मजाक में काफी कुछ हकीकत भी थी। उत्तराखंड राज्य गठन के बाद रोडवेज की बसें चकाचक हो गई। लोग इसमें बैठना पसंद करते हैं। बसों की अच्छी स्थिति और समय लोगों को भा रहा है।
ऐसा सुधार राज्य के सरकारी स्कूलों में नहीं दिखता। रोडवेज जैसा मजाक अब सरकारी स्कूलों को लेकर भी होता है। ये सच है कि स्कूलों में भौतिक संसाधन बेहतर हुए हैं। शिक्षकों के रिक्त पद काफी हद तक भरे गए हैं। सरकारी स्कूलों में बेहद योग्य और क्षमतावान शिक्षक हैं।
बावजूद इसके सरकारी स्कूलों को लेकर समाज की धारणा नहीं बदल रही है। दरअसल, शिक्षकों पर लादे गए शिक्षणेत्तर कार्य की वजह से स्कूलों में किए गए भौतिक सुधार खास असर नहीं दिखा पा रहे हैं। शिक्षकों के पास पढ़ाने से अधिक अन्य काम हैं। इत्तर कार्यों का शिक्षा विभाग में मूल्यांकन अधिक होता है।
यही वजह है कि कभी मॉडल तो कभी अटल उत्कृष्ठ नाम भी अभिभावाकों नहीं लुभा पा रहे हैं। सबको सीबीएसई को सौंपने का आहवान भी खास हलचल पैदा नहीं करता।
शिक्षक-अभिभावक और छात्र का त्रिकोण कमजोर हो गया है। यानि स्कूलों की स्थिति काफी हद तक 90 के दशक की रोडवेज की बसों की तरह हो गई हैं। रही सही कसर 21 सालों में हुए प्रयोगों की समीक्षा न होना है।
प्रयोगों के रिजल्ट देखने की जरूरत न तो विभाग महसूस करता है और न सरकार। परिणाम हर प्रयोग को अपने में समा देने वाले शिक्षक समाज के निशाने पर होते हैं।