सरकारी स्कूलों के प्रिंसिपल हाशिए पर
ऋषिकेश। सरकारी स्कूलों के मुखिया यानि प्रिंसिपल हाशिए पर हैं। प्रिंसिपल सरकारी कागजातों के हिसाब-किताब में इतने उलझे हुए है कि स्कूल की बेहतरी और छात्र/छात्राओं के सर्वांगीण विकास के लिए हटकर सोचने का उनके पास समय ही नहीं बच पाता। कहा जा सकता है कि सरकारी स्कूलों के प्रिंसिपल भजराम हवलदारी करने को मजबूर हैं।
स्कूल का मतलब छात्र, शिक्षक और प्रिंसिपल से है। जिन प्राइवेट स्कूलों में अधिकांश सरकारी अधिकारी/कर्मचारियों के बच्चे पढ़ते हैं वहां कम से कम ऐसा ही है। बेहतरी की प्रतिस्पर्द्धा स्कूल के भीतर ही होती है। न कोई संकुल स्तर, न ब्लॉक स्तर, न जिले और न राज्य स्तर पर। परिणाम प्रिंसिपल पर बेहतरी का नैतिक दबाव होता है।
प्रिंसिपल अधिकार के साथ स्कूल और छात्र/छात्राओं की बेहतरी के लिए टीम लीडर की तरह काम करता है। बेहतरी के लिए प्रयोग करते हैं। परफारमेंस के आधार पर छात्र/छात्राओं को रीड कर पाते हैं। प्रिंसिपल शिक्षकां को बेहतर परिणाम के लिए प्रेरित करता है। इस तरह से स्कूल में टीम वर्क के माध्यम से अच्छे परिणाम दिखते हैं।
सरकारी स्कूलों में प्रिंसिपल विभिन्न स्तर के सरकारी कार्यालयों की लौटती डाक में उलझे रहते हैं। प्रिंसिपलों का अधिकांश समय इसमें जाया हो जाता है। सरकारी कागजातों को अपडेट रखने का दबाव शिक्षकों पर भी होता है। विभिन्न स्तरों से होने वाला निरीक्षण का दबाव भी स्कूलों पर साफ-साफ देखा जा सकता है।
प्रिंसिपल का मूल्यांकन इत्तर कार्यों के आधार पर होता है। हालांकि बीच-बीच में पढ़ाई का बेहतर माहौल बनाने की चिटठी पत्री भी अधिकारियों के स्तर से आती रहती है।
कुल मिलाकर सरकारी स्कूलों में प्रिंसिपल हाशिए पर होते हैं। वो स्कूल की बेहतरी और छात्र/छात्राओं के सर्वांगीण विकास के लिए कुछ हटकर करने की स्थिति में नहीं होते। कहा जा सकता है कि सरकारी स्कूलों के प्रिंसिपल भजराम हवलदारी करने को मजबूर हैं। हालांकि यदा कदा कुछ स्कूलों में कुछ हटकर काम की बात भी सामने आती रही हैं।