हरकी दून के ओसला गांव की एक रोमांचक यात्रा

हरकी दून के ओसला गांव की एक रोमांचक यात्रा
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प्रो. विश्वम्भर प्रसाद सती।

हरि को हिंदू शास्त्र में विष्णु माना जाता है, और दून का मतलब विहार होता है, यानी वह स्थान जहाँ हरि की पूजा होती है। इस प्रकार, हरि की दून को देवताओं की घाटी भी कहा जाता है। हालांकि, हरि की दून एक प्राकृतिक इकाई है, जो महान हिमालय के बर्फ से ढके पर्वतों की गोद में स्थित है। हरि की दून पृथ्वी पर एक अनोखी प्राकृतिक विशेषता है, जो पेड़ की रेखाओं के ऊपर और बर्फ की रेखा के नीचे स्थित है।

यह एक विशाल अल्पाइन चरागाह भूमि है, जहाँ सैकड़ों जीवों की प्रजातियाँ पाई जाती हैं, और कई नदियाँ, धाराएँ, और नदियाँ मिलकर झरने, जलप्रपात और मोड़ बनाती हैं। यह गर्मियों में पशुपालकों का निवास स्थान है, परियों, जादूगरों, और आत्माओं की भूमि है, और ऋषियों और संतों के लिए तपस्या करने और शांति, स्थिरता, और मोक्ष प्राप्त करने का स्थान है। यमुनप, जो यम, मृत्यु के देवता की बहन है, के साथ इसकी सैकड़ों नदियाँ और धाराएँ, महान हिमालय से गंगा घाटी तक बहती हैं और शानदार परिदृश्यों को बनाती है ।

हिमालयी लोग सरल स्वभाव के होते हैं, प्रकृति के करीब रहते हैं और अपनी आजीविका को प्रकृति के उत्पादों, जैसे कंद फलों, से प्राप्त करते हैं। उनका मुख्य कार्य कृषि पर आधारित होता है, जिसमें पारंपरिक फसलों की खेती, पशुपालन, और लकड़ी और गैर-लकड़ी वन उत्पादों का संग्रह शामिल है। उनका व्यवसाय ऊँचाइयों के अनुसार भिन्न होता है – नदी घाटियाँ, मध्यम ऊँचाई, और उच्चभूमियाँ। हालांकि, यह अनूठा और रोमांस से भरा होता है।

यह जुलाई 2024 था। हमारे विश्वविद्यालय में ग्रीष्मकालीन अवकाश था और वह 18 दिनों के लिए बंद था। 1990 के दशक में गढ़वाल क्षेत्र छोड़ने के बाद से, मुझे पूरे गढ़वाल हिमालय को देखने का शायद ही कभी मौका मिला क्योंकि मेरा कार्यस्थल दूर था, और मुझे दूरस्थ स्थलों का दौरा करने का सीमित समय मिलता था। इस बार, सर्वशक्तिमान की कृपा से, मुझे कुछ कीमती समय मिला जो मैं विशाल हिमालय की गोद में बिता सका। इस प्रकार, मैंने हरि की दून की यात्रा के लिए एक सटीक योजना बनाई। आइजॉल से देहरादून की दूरी बहुत लंबी है, लेकिन हवाई यात्रा सुखद होती है। पहली बार, मैंने कोलकाता हवाई अड्डे पर रुकने की योजना बनाई, और अगले सुबह कोलकाता से देहरादून के लिए एक सीधी दो-ढाई घंटे की उड़ान थी, जो दोपहर से पहले पूरी होती थी।

देहरादून उत्तराखंड की अंतरिम राज्य राजधानी और सबसे बड़ा शहर है। इन दिनों, देहरादून का मौसम असहज था – नम और गर्म। शहर का विस्तार दिन-ब-दिन बढ़ रहा था, जो प्राकृतिक जनसंख्या वृद्धि और प्रवासन के कारण था। सुंदर कृषि क्षेत्रों को कंक्रीट के जंगल में बदल दिया गया था, और देहरादून का मौसम बिगड़ रहा था। फिर भी, घर हमेशा मीठा होता है, और इसलिए, देहरादून मेरा सपना स्थान बना रहा। हरिद्वार बाईपास रोड पर निलाया हिल्स में मेरा एक सुंदर फ्लैट है, और निलाया हिल्स में रहना एक सपना साकार हो गया है।

एक तीन सदस्यीय टीम मेरे साथ हरि की दून की यात्रा में शामिल हुई, जिससे हम कुल चार यात्री बन गए। डॉ. किरण त्रिपाठी, सरकारी कॉलेज, हरिद्वार में भूगोल की सहायक प्रोफेसर, एक दयालु लेकिन स्पष्टवादी महिला थीं जिनमें मजबूत नेतृत्व गुण थे। डॉ. राजेश, जो देहरादून के एक कॉलेज में भूगोल के फैकल्टी सदस्य थे, ने अपने हंसमुख मूड और दया के साथ समूह में योगदान दिया। तीसरी साथी, डॉ. मंजू, देहरादून के एक कॉलेज से, अपनी मिठास और सुंदरता के लिए जानी जाती थीं। सभी प्रोफेसर कमलेश कुमार के सीधे या अप्रत्यक्ष छात्र थे, जिनमें महान बंधन था। हमने तीन जुलाई, 2024 को देहरादून से सुबह सात बजे हरि की दून की यात्रा शुरू की।

हमारा पहला पड़ाव केम्प्टी फॉल था, जो मसूरी के रास्ते में आता है। केम्प्टी फॉल देहरादून से लगभग 50 किलोमीटर की दूरी पर 1340 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। केम्प्टी फॉल से लगभग 10 किलोमीटर की दूरी पर एक जगह है जिसे यमुना ब्रिज (मसूरी ब्रिज) कहा जाता है, जहाँ सड़क दो भागों में विभाजित होती हैरू एक मार्ग बड़कोट (68 किमी दूर) की ओर जाता है, और दूसरा विकास नगर और थट्यूड की ओर जाता है। रास्ते में कई होमस्टे थे क्योंकि यह मार्ग यमुनोत्री, एक उच्चभूमि तीर्थ स्थल, की ओर जाता है। इस क्षेत्र की तीन सांस्कृतिक परंपराएँ हैंरू जौनसार-बावर, रवाईं, और पश्चिमी गढ़वाल क्षेत्र। जौनसार-बावर टॉन्स नदी के जलग्रहण क्षेत्र में स्थित है, जिसमें रूपिन और सुपिन की घाटियाँ शामिल हैं।

रवाईं क्षेत्र यमुनाघाटी में स्थित है, मुख्यतः पुरोला तालुक के कमल घाटी में। इन क्षेत्रों में संस्कृति और सांस्कृतिक विरासत समृद्ध और विविध है। पुरोला को पार करने के बाद, हम मोरी पहुँचे, जो टॉन्स नदी के किनारे स्थित एक कस्बा है। वहां से, हम नेटवाड, एक सेवा केंद्र, और फिर गैंचवाँ गाँव की ओर बढ़े। रास्ते में, हमने दो महत्वपूर्ण कृषि विशेषताएँ देखीं। टमाटरों और सेबों के खेत, जो प्रचुर मात्रा में उगाए गए थे। हमने गैंचवाँ गाँव में एक स्थानीय परिवार के साथ रात बिताई, जो एक सुखद अनुभव था। दूसरे दिन, सुबह के सात बजे थे। मैं अपने साथियों के साथ नेत्वाड से ओसला गाँव के ट्रेकिंग पर निकल पड़ा। हमने एक टैक्सी किराए पर ली और आगे बढ़ गए। आज सुबह से ही बारिश जमकर हो रही थी।

नदी-नाले उफान पर थे। कुछ दूर पहुंचे ही थे कि एक नाला मिला जिसमे अतिप्रवाह था। पुल टूटा हुआ था। टैक्सी को नाला पार करना था। पानी का स्तर बढ़ रहा था। बेमुश्किल से वो रस्ता पार किया। कुछ दूर चलने के बाद एक छोटा सा कस्बा आया। टैक्सी चालक जो हमारे साथ चल रहा था, उसने आगे जाने से मना कर दिया था। काफी देर हमें उस कस्बे में रुकना पड़ा था।
लगभग दो घंटे रुकने के बाद एक बड़ी गाड़ी आई थी।

मैंने ड्राइवर से विनती की कि हमें गंगाड़ कस्बे तक ले जाएं। वह मान गया। और तब शुरू हुई अत्यंत कठिन परीक्षा। सड़क की स्थिति तो बस शिव ही जाने। लटकते-झटकते और दिल को हथेली पर रखकर आगे बढ़ रहे थे। एक जगह पर तो गाड़ी उलटने को ही थी। फिर कुछ और हुआ। ड्राइवर ने गाड़ी खड़ी कर दी। अब हमें लगभग 4 किलोमीटर पैदल जाना था। तीव्र ढाल, संकरी पगडंडी, और उसके ऊपर से तेज बारिश। बस मानो कि पहाड़ टूट गया हो। जैसे-तैसे गंगाड़ कस्बे में पहुंचे। हम लोग छह कस्बों से होकर गुजरे थे कोट गाँव (1770 मीटर), सिद्री (1850 मीटर), सांकरी (1940 मीटर), तालुका (2110 मीटर), धारकोट (2530 मीटर), और गंगड़ (2300 मीटर)। गंगाड़ कस्बा सुपिन नदी के किनारे बसा हुआ एक सुंदर अधिवास है। गंगाड़ में पहुँचते ही भारी वर्षा शुरू हो गई। हमने मैगी खाई और चढ़ाई चढ़ने लगे।

सुपिन नदी के किनारे-किनारे हम आगे बढ़े। रास्ता पत्थरीला, उबड़-खाबड़, और कठिन चढ़ाई। सुपिन नदी अपने यौवन अवस्था में थी, मानो दहाड़ रही थी। कुछ राहगीरों ने बताया कि कल से नदी के प्रवाह क्षेत्र में वर्षा हुई थी। कुछ दूर जाने के उपरांत, हमने नदी को पार किया। एक झूलता हुआ पुल, कुछ टूटा, जान हथेली पर लेकर पुल पार किया। और फिर असली चढ़ाई शुरू हुई। चढ़ाई तीव्र थी। जैसे ही एक पाँव ऊपर रखते, एक पाँव स्वतः ही पीछे हो जाता। काफी मशक्कत करने के बाद हम गाँव के नजदीक पहुंचे। धीरे-धीरे वर्षा की सघनता बढ़ रही थी। और जैसे- तैसे हम एक घर में रात्री विश्राम हेतु पहुंचे। जैसे ही घर में पहुंचे, मैंने एक उम्र दराज महिला देखी।

मैं सहसा थम सा गया था। पुरानी यादें ताजा हो गई थी। मुझे उस महिला में अपनी दादी की छवि दिख रही थी। वह महिला मुझे संकोच के साथ देख रही थी। गाँव की उबड़-खाबड़ गलियां, मकान की त्यबारी, और मकान के एक छोर पर कुछ गायें बंधी हुई थीं। सब कुछ वैसा ही, जैसे मेरे बाल्यकाल में था। पर यकायक मैं संभाला था। यह तो एक सपना था। खैर मैं घर की त्यबारी में गया। बैग बेंच पर रखा और बैठ गया। सोमेश्वर महादेव यहाँ के इष्ट देव हैं। गाँव के बीचों-बीच भगवान सोमेश्वर का मंदिर है, जो भाद्र मास के 20 गते को ही खुलता है। गाँव के चारों तरफ जल ही जल था, परंतु पेयजल का नितांत अभाव। मध्य में जल की एक पौड़ी थी पर वह जलापूर्ति करने में सक्षम नहीं थी।

गाँव की समस्त गलियाँ गंदगी से भरी थीं। वर्षा ऋतु में लोग अपने भेड़-बकरियों के साथ हरी की दून ग्रीष्मकालीन चारागाह के लिए गए थे। इसलिए इन दिनों दूध का नितांत अभाव रहता था और यहाँ के लोग भी अमूल दूध का उपयोग कर रहे थे। गाँव के लोग हिस्ट-पुष्ट थे। ये अपने जानवरों को लून (नमक) देने के लिए हरी की दून (28 किमी) जाते थे और आधे दिवस में ही दूरी तय कर लेते थे।

गाँव में सिर्फ एक प्राथमिक विद्यालय थी और यहाँ से कुछ दूरी पर हाई स्कूल। इसलिए यहाँ की वर्तमान पीढ़ी मात्र हाई स्कूल पास थी। कुछ वर्षों से राज्य शासन की सहायता से कुछ बच्चे देहरादून में उच्च शिक्षा हेतु जा रहे थे। गाँव में घुप अंधेरा। गाँव वालों ने बताया कि वहाँ अक्सर बिजली नहीं रहती है। एक बल्ब जल रहा था जो सोलर से चल रहा था। ओसला गाँव 2750 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। ऊँचाई के कारण रात्री ठंडी थी। रात्री के भोजन में घी, दही, रोटी, राजमा की दाल, चावल, फाफरा, चौलाई और कद्दू के पत्तों की सब्जी थी, स्वादिष्ट। कुछ देर तक गपशप की और रात्री को लगभग 11 बजे सो गए।

गाँव में सुविधाओं का नितांत अभाव था। संकरी एवं गंदी गलियाँ, पत्थरीली, एवं उबड़- खाबड़। न टॉयलेट, न बाथरूम और न अन्य सुविधाएँ। साथ ही न कोई बैंक, न पोस्ट ऑफिस, और न ही किसी प्रकार की संचार की सुविधा। यहाँ तक कि गाँव में फोन की सुविधा भी नहीं थी। यहाँ आलू और राजमा का बहुतायत उत्पादन होता है, परंतु खाने के लिए आलू नहीं था। अजीब सी स्थिति थी, कुल मिलाकर दयनीय। ऐसा लगता था कि मानो ये लोग सातवीं शताब्दी में रह रहे थे। दूसरे दिन प्रातःकाल, हम लोग हरी की दून की ट्रेकिंग पर निकले। सुबह से ही रिमझिम वर्षा हो रही थी।

कभी-कभी वर्षा तेज हो जाती थी। हम हिम्मत कर ओसला गाँव से आगे की ओर बढ़ गए थे। पगडंडी भयावह थी। छोटे-छोटे नाले उफान पर थे। एक-एक कदम चलना मुश्किल साबित हो रहा था। फिर भी हम आगे बढ़ते गए थे। हम हिमालय के जितने करीब जा रहे थे, प्रकृति उतनी ही सुंदर हो रही थी और सम्पूर्ण क्षेत्र में दिव्य तरंगें चल रही थीं। हरी की दून का शब्दार्थ ही विष्णु की घाटी होता है। हम लोग ईश्वर के और करीब होते जा रहे थे। लगभग चार किलोमीटर की दूरी पार करने के उपरांत एक कैंप साइट था। एक छोटा बुग्याल।

पहाड़ों में अल्पाइन घास के मैदानों को बुग्याल कहते हैं। सुपिन नदी के कुछ ही दूरी पर यह बुग्याल अति आकर्षक था। दिल झूम उठा था और मन प्रकृति की गोद में समाने की जिद में था। हम लोग आगे बढ़े। पनघट की डगर कठिन थी। साहस उतना ही दृढ़। हरी की दून तक तो नहीं जा पाए परंतु उसका पूरा आभास हमें हो गया था। जैसे ही समय बढ़ रहा था, मौसम विकराल रूप धारण कर रहा था। हम लगभग 16 किलोमीटर की पैदल यात्रा कर चुके थे।

हमें अपना बचाव खुद ही ढूंढ़ना था। इसलिए हम धीरे-धीरे वापस आने लगे। शरीर चूर-चूर हो चुका था और आराम के लिए कहीं भी आश्रय नहीं था शाम का प्रहर था। हम सोच रहे थे कि रात्री विश्राम गंगाड़ में किया जाए। हमारे पास कुछ समय शेष था। सोचा कि कुछ दूर की यात्रा और की जाए। धारकोट गाँव तक पहुँचने के लिए दो रास्ते थे। एक खड़ी चढ़ाई और दूसरी सड़क के किनारे- किनारे। सड़क का रास्ता लंबा था। जगह- जगह पर भूस्खलन हो रखा था। एक तीखी चढ़ाई चढ़ने के बाद हम सड़क के रास्ते आगे बढ़े। सड़क मार्ग में थोड़ा ढाल था, चलने की अच्छी सुविधा।

रास्ते में कहीं वर्षा न हो जाए, हम तेज गति से आगे बढ़ रहे थे। लगभग एक घंटे के उपरांत हम धारकोट गाँव में पहुँचे थे। सड़क पर एक चाय की दुकान थी। हम सुस्ताने लगे। मेरे दो साथी गाँव में रात्री विश्राम हेतु मकान की तलाश में थे। समय बढ़ता जा रहा था। जैसे ही हम भी साथियों के पीछे जाने ही वाले थे कि घनघोर वर्षा हो गई। तेज भागते हुए हमने एक घर में आश्रय लिया था। वहाँ हमारे दो साथी पहले से ही मौजूद थे। मकान पूरा देवदार की लकड़ियों का बना था। सुंदर। पर छज्जों की ऊँचाई बहुत कम। तीन बार तो मैं चोट खा चुका था।

पूरी सुपिन घाटी में मकान लकड़ी के बने थे और उनकी बनावट अद्वितीय थी। अतिथि सत्कार ने हमारा दिल जीत लिया था। कुछ देर त्याबारीपर बैठे रहे और जब वर्षा की मात्रा में तीव्र वृद्धि हुई तो हम अंदर के कमरे में चले गए। रात्रि भोजन स्वादिष्ट था। पहली बार फाफड़ा की सब्जी खाई थी। छाछ और मंडुवे की रोटी। सब कुछ अच्छा ही अच्छा। रात्रि के 11 बजे थे। सोना भी था। पर असली परीक्षा तो बाथरूम की थी। रात्रि का प्रहर। घनी रात और उसके ऊपर घनघोर वर्षा। जैसे नीम के ऊपर करेला। बाथरूम गंदा सा और दूर। मानो आसमान टूट गया हो। मैं महसूस कर रहा था कि हर की दून ट्रेकिंग आसान थी और धरकोट का बाथरूम कठिन।  बस रात कट गई और सवेरा भी हो गया।

नाश्ता करने के बाद अब आगे की यात्रा करनी थी। गाँव वाले भोले-भाले। पहले कहा कि गाड़ी जा रही है और फिर मना कर दिया। हम लोग सड़क के सहारे ट्रेकिंग करने लगे। जगह-जगह पर भूस्खलन। नाले उफान पर। लगभग आठ किमी चलने के बाद एक ट्रैक्टर दिखा। ड्राइवर से बात की और वो हमें कुछ दूरी तक ले जाने के लिए तैयार हो गया, लगभग चार किमी। आगे एक नाला उफान पर था। पुल टूट गया था। गाँव वालों ने एक मोटी बल्ला नाले के ऊपर लगा रखी थी जिससे लोग नाले को आर पार कर रहे थे। हम लोगों ने हिम्मत की और उस बल्ला से नाले को पार कर दिया। फिर आगे बढ़ गए। सांकरी तक की सड़क भयंकर थी। हद तो तब हुई जब एक सड़क पूरी तरह से टूटी थी, ऊपर वाले ढल से बड़े-बड़े पत्थर गिर रहे थे और आगे बड़ा बरसाती नाला।

जैसे आगे पहाड़ और पीछे खाई। साथ के लोग डर गए थे। सड़क पर एक बड़ा पेड़ गिरा था। कुछ देर में पेड़ को हटा दिया गया। आगे तूफानी नाला पार करना था। कुछ मजदूर हमारी सहायता के लिए आगे आए। हमने जूते खोले और नाले के उस पार फेंक दिए। मेरी पीठ पर पिठ्ठू अभी भी था। बमुश्किल नाले को पार किया। जान हथेली पर थी। फिर आगे बढ़े। सांकरी जाने तक दो गाड़ियां बदली थी और अंत में सांकरी पहुँच गए। अब रास्ता आसान था।

हम नेटवाड़ होते हुए मोरी पहुंचे और फिर टोंस नदी के किनारे-किनारे हनोल। हनोल महासू देव का निवास स्थान है। वे न्याय के देवता हैं। टोंस नदी किनारे बसा हनोल गाँव अति प्राचीन है और यह सांस्कृतिक विरासत के लिए प्रसिद्ध है। हनोल में भोजन किया, स्वादिष्ट। फिर, वापस मोरी आए और चीड़ के जंगलों से होते हुए पुरोला पहुंचे, जहाँ रात्रि विश्राम किया। दूसरे दिन सुबह दो गांवों का सर्वे किया और दोपहर बाद देहरादून पहुँच गए। इस तरह एक भौगोलिक, सांस्कृतिक, और साहसिक यात्रा की समाप्ति हुई। यह यात्रा सदैव ही मन में बसी रहेगी।

लेखक मिजोरय विश्वविद्यालय, आइजोल में वरिष्ठ प्रोफेसर हैं।

Tirth Chetna

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