चुनावी साल में ऐसे दबाई जाती है जनता की आवाज
देहरादून। चुनावी साल में जनता की आवाजों को दबाने, सवालों को हाशिए पर पहुंचाने और मुददों को मुर्दा बना देने के प्रयास शुरू हो गए हैं। परिणाम चुनाव यूं ही हो जाते हैं और सरकार ऐसे ही बन जाती है।
सत्ता पर काबिज रहने और सत्ता पाने के लिए राजनीतिक दल इन दिनों उत्तराखंड को चुनावी मोड में उड़ा रहे हैं। इस मोड में आम जनता बेचारी बनी हुई है। वो सिर्फ टपरा टपराकर अपने वोटर कार्ड को ही देख पा रही है।
दरअसल, ये सारी प्रैक्टिस लोकतंत्र में लोक को निराकार बनाने का प्रयास है। राजनीतिक दल इसमें सफल भी हो रहे हैं। वजह जनता के सवाल टिक नहीं पा रहे हैं। जनता की नाराजगी और उसके सवालों को हो हल्ले से दबा दिया जा रहा है।
हो हल्ला इतना तेज है कि जनता की आवाज अब सुनाई नहीं दे रही है। कल तक जनप्रतिनिधियों से सवाल करने, उनको वादे याद दिलाने वाली जनता विभिन्न मार्का रैलियों में जुट रही भीड़ से हतप्रभ है। पहाड़ के लगभग खाली हो चुके गांवों में चंट चकड़ैत ही लोगों को अपने हिसाब से समझा रहे हैं।
राज्य के पिछले चार चुनावों में भी ऐसा ही कुछ देखा गया था। किसी भी चुनाव में राजनीतिक दलों ने मुददों को हावी नहीं होने दिया। राजनीतिक दलों और उनके स्टार टाइप नेताओं द्वारा की गई बातों ने ही मुददों का रूप लिया और एक दल से सरकार छिन गई और दूसरे दल को मिल गई। राज्य जहां खड़ा था वहीं खड़ा है।
स्थिर हो चुके राज्य में भी राजनीतिक दल जनता को लाइव डिवलपमेंट दिखाते रहे हैं। इस बार भी ऐसा ही कुछ हो रहा है। मीडिया के माध्यम से ये कई तरह से अंतिम व्यक्ति तक भी पहुंच जा रहा है। अब लोग भी आभासी-आभासी के अभ्यस्त हो गए हैं। विकास के गंगा बहते तो अभासी तरीके से दिख ही रही है। चार साल की चुप्पी के बाद सरकार इन दिनों विकास के बाढ़ ला रही है। कारोड़ों करोड़ के प्रोजेक्ट की घोषणाएं हो रही हैं।
इन घोषणाओं का उल्लास ऐसा मनाया जा रहा है कि इस पर सवाल उठाने वालों की आवाज कुंद पड़ जा रही है। बड़े-बड़े लोगों को रैबार देने के लिए बुलाया जा रहा है। उक्त लोग रैबार देने के बजाए रैबार बनाने का प्रयास कर रहे हैं।