लोक पर हावी हो रहा तंत्र
मतदान का बहिष्कार और बेरूखी शुभ संकेत नहीं
सुदीप पंचभैया
ऋषिकेश। लोकसभा चुनाव में लोगों का मतदान का बहिष्कार और मतदान को लेकर बेरूखी वास्तव में लोक पर हावी होते तंत्र का परिणाम है।
भारत में जिस लोकतंत्र की कल्पना की गई थी उसकी आदर्श स्थिति तेजी से छीज रही हैं। लोक तेजी से हाशिए पर जा रहा है और तंत्र लोक को हांकने लगा है। तंत्र में शामिल व्यवस्था लोक को सिर्फ चुनाव के समय की पूछती और पूजती है। पांच साल जनप्रतिनिधि लोक को पूछते नहीं हैं। दरअसल, चुनाव जीतने के बाद सांसद/विधायक राजनीतिक दल के हो जाते हैं।
यहीं से परेशानी शुरू हो रही हैं। लोगों का चुनाव पर भरोसा उठने लगा है। लोग सवाल करने लगे हैं कि उनके द्वारा चुना गया प्रतिनिधि किसी राजनीतिक दल का कैसे हो सकता है। उस पर जनता के बजाए राजनीतिक दल का व्हीप कैसे लागू हो सकता है।
ये सब सवाल अब लोगों को परेशान कर रहे हैं। लोकतंत्र के नाम पर पांव पसार रही व्याधियों को लोग अच्छे से महसूस कर रहे हैं। कुछ सालों के बाद ये बातें कई अन्य रूपों में भी देखने को मिलेंगी। इस पर हर स्तर पर गौर किया जाना चाहिए। ताकि सही मायने में लोकतंत्र मजबूत हो।
लोकतंत्र की मजबूती के लिए वोट देने के लिए प्रेरित किया जाता है। जबकि लोकतंत्र सिर्फ वोट से ही मजबूत नहीं होता। लोकतंत्र की मजबूती में तंत्र का बड़ा रोल होता है। मगर, तंत्र जाने अनजाने लोक को ही कमजोर कर रहा है। कम से कम आम लोगों में धारणा घर कर रही है।
उत्तराखंड की पांच लोकसभा सीट पर 2019 के मुकाबले हुआ कम मतदान से इसे अच्छे से समझा जा सकता है। तमाम जागरूकता के बावजूद मतदाताओं ने लोकसभा चुनाव में मतदान करने में रूचि नहीं दिखाई। इस बात का राजनीतिक दल या किसी सरकार पर कोई असर पड़ने वाला नहीं है।
कुछ स्थानों पर लोगों ने चुनाव का बहिष्कार भी किया। लोगों ने चुनाव का बहिष्कार तंत्र की उनके प्रति बेरूखी की वजह से किया। कहीं विकास के लिए चुनाव का बहिष्कार हुआ तो कहीं तंत्र के उत्पीड़न के खिलाफ। तंत्र ने उनके सवालों को एड्रेस अपने हिसाब से किया। मतलब इसमे लोक के सम्मान की बात सिरे से गायब रही।
इसमें लोगों द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधियों ने कोई रोल अदा नहीं किया। दरअसल, अब जनप्रतिनिधि वोटों के समीकरण और गणित के हिसाब से ही काम कर रहे हैं। जो वर्ग इसमें फीट नहीं होता उसकी हर स्तर पर उपेक्षा हो रही है। सफेदपोश तंत्र के साथ मिलकर व्यवस्थाएं अपने हिसाब से बना रहे हैं।
इससे बहुख्यंक लोगों के मन में ये विचार तेजी से आकार लेकर रहा है कि आखिर लोकतंत्र में वो हैं कहां। लोकतंत्र में उनकी गिनती सिर्फ एक वोटर के तौर पर है।