स्त्रीः आंचल से परचम तक’

डा. सुमन कुकरेती
स्त्री विमर्श, स्त्री चेतना, स्त्री अस्मिता आदि शब्द एक दूसरे के पूरक हैं जो नारी के अस्तित्व, स्वाभिमान, अधिकारों को केंद्र में रखते हैं। सदियों से दासता के स्याह अंधेरे में अपने अस्तित्व के लिए जूझती स्त्री को निरंतर संघर्षों का सामना करना पड़ा। ऐसी विचार दृष्टि जिसने स्त्री को मनुष्य से एक पायदान नीचे रखा, उसके खिलाफ स्त्री का संघर्ष सदियों से चलता आ रहा है और आधुनिक समय में भी गतिमान है। प्रश्न उठता है कि नारी विमर्श की आवश्यकता क्यों हुई? नारी के अधिकारों का हनन किसने किया?
यह स्पष्ट है कि समाज में स्त्री तथा पुरुष एक-दूसरे के पूरक हैं, दोनों के अस्तित्व से ही समाज का सृजन और विकास हुआ है किंतु दोनों को एक समान दृष्टि से नहीं परखा गया, यहीं से समाज में विकृत मानसिकता का आरंभ हुआ। पुरुष को श्रेष्ठ तथा स्त्री को हीन समझने वाली पुरुषवादी अथवा पितृसत्तात्मक सोच ने भेदवादी दृष्टि पैदा करके स्त्री शोषण का मार्ग प्रशस्त किया। जब शोषण हुआ तो उसका प्रतिकार भी आरंभ हुआ, बहुत समय तक अपने भाग्य को कोसने के उपरांत एक स्त्री चेतना जगी और शनैःशनैः साकार होकर एक आंदोलन के रूप में चल पड़ी।
स्त्री अधिकारों का हनन उस पितृसत्तात्मक सोच ने किया जो पुरुष को स्वामी तथा स्त्री को दास समझता रहा है। नारी अस्मिता का संघर्ष इस मायने में सार्थक है कि इससे स्त्री अपनी दासत्व की बेड़ी से मुक्त होने की कोशिश करते हुए नित नए आयामों को प्राप्त कर रही है।
यह दीगर बात है कि पुरुष ही स्त्री का विरोधी हो ऐसा नहीं है अपितु वह मानसिकता जिसने पुरुष का महिमामंडन करते हुए स्त्री के साथ पशुवत व्यवहार किया उस सोच का विरोध होना ही चाहिए। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जिसमें स्त्री को केवल स्त्री होने के कारण अनेक यातनाएं सहनी पड़ी, किंतु अपनी अदम्य जिजीविषा से वह उन से निकलकर निरंतर अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रही।
अद्यतन अनेक व्यक्तित्व, संस्थाएं विचारधाराएं स्त्री चेतना को स्वीकार कर उसकी सार्थकता को सुनिश्चित कर रहे हैं। महादेवी वर्मा का कथन एकदम सत्य है कि- ’भारतीय पुरुष ने स्त्री को या तो सुख के साधन के रूप में पाया या भार के रूप में,फलतः वह उसे सहयोगी का आदर न दे सका।
वस्तुतः मनुष्य होने के उपरांत ही हम स्त्री अथवा पुरुष हैं फिर हमारे अधिकार एक समान क्यों नहीं? जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहां स्त्रियों ने अपना लोहा न मनवाया हो- राजनीतिक, सामाजिक,आर्थिक इत्यादि सभी मोर्चों पर वह सफल हुई है, फिर भी अद्यतन घरेलू हिंसा,यौन हिंसा, ऑनर किलिंग, दहेज़ प्रथा आदि विपदाओं से पार पाना स्त्री के लिए चुनौती है।
परिस्थितियां बदली हैं, एक सकारात्मक परिवर्तन हुआ है किंतु अभी भी मुश्किलें कम नहीं हुई हैं। आर्थिक रूप से सबल होना स्त्री के लिए अति आवश्यक है जिससे उसकी स्थिति में सुधार हो और वह समाज में मजबूती से अपनी उपस्थिति दर्ज करे।
जैसे उगते हैं चांद और सूरज,जैसे निश्चितता से उठती हैं लहरें
जैसे उम्मीदें उछलती हैं ऊपर उठती जाऊंगी मैं भी’ – माया एंजलो
लेखिका उच्च शिक्षा में प्राध्यापिका हैं।