शिक्षा के लिए विदेश जाने की मजबूरी
भारतीयों का शिक्षा के लिए विदेश जाने का क्रम जरूरत के साथ शुरू हुआ। अब स्टेटस से होता हुआ मजबूरी बन गया है। व्यवस्था के स्तर से इस पर गौर किया जाना चाहिए। ताकि पढ़ाई के लिए मजबूरी में विदेश न जाना पड़े।
इन दिनों भारत में रूस-यूक्रेन के बीच छिड़ी जंग से अधिक चर्चा यूक्रेन में पढ़ रहे भारतीय छात्रों की है। यूक्रेन में बड़ी संख्या में भारतीय छात्र मेडिकल की पढ़ाई कर रहे हैं। छात्र/छात्राओं को यूक्रेन से सुरक्षित निकालने के लिए सरकार पर दबाव बना तो तमाम बातें सामने आ गई।
फिक्स माइंड सेट वाले लोग कुछ भी कहें सवाल तो उठेगा ही कि आखिर इतनी बड़ी संख्या में छात्र मेडिकल की पढ़ाई के लिए विदेश क्यों जा रहे हैं। आखिर क्या मजबूरी है ? इस पर खुलकर चर्चा होनी चाहिए और निदान भी।
ये बात किसी से छिपी नहीं है कि देश में व्यवस्था धीरे-धीरे शिक्षा-चिकित्सा की जिम्मेदारियों अलग हो रही है। दोनों क्षेत्रों में प्राइवेट सेक्टर के बढ़ते कदम इसका प्रमाण है। पिछले 25 सालों में देश में मेडिकल एजुकेशन आम जन की पहुंच से बाहर हो गई।
12 वीं में लाखों छात्र डाक्टर बनने का सपना देखते हैं और हजारों को ही मौका मिलता है। इन हजारों में भी आधे हजार बड़ी रकम देकर एडमिशन पाते हैं। इस खेल में गरीब के बच्चे के सपने धुंधलाने लगते हैं।
भारत की इस स्थिति को शायद यूक्रेन जैसे देश भांप गए। उन्होंने सस्ती मेडिकल एजुकेशन से भारतीय छात्रों को आकर्षित किया। हर साल हजारों हजार भारतीय छात्र एमबीबीएस करने अन्य देशों में जा रहे हैं। छात्र ऐसा मजबूरी में कर रहे हैं। व्यवस्था को इस पर गौर करना चाहिए।
व्यवस्था के साथ-साथ समाज की भी जिम्मेदारी है कि वो सरकारी एजुकेशन सिस्टम पर भरोसा रखे। स्कूली शिक्षा से ऐसा दिखना चाहिए।