वन महोत्सवः वनों के प्रति हमारी जिम्मेदारी

वन महोत्सवः वनों के प्रति हमारी जिम्मेदारी
Spread the love

डा. स्मिता बडोला बुड़ाकोटी

समुदाय और व्यक्तिगत स्तर पर बगैर जिम्मेदारी का भाव पैदा हुए किसी उददेश्य को सही अर्थों में धरातल पर उतारना संभव नहीं है। ऐसा ही कुछ वन महोत्सव में देखा और समझा जा सकता है। 72 साल का सिंहावलोकन करें तो इस बात को यकीन के साथ कहा जा सकता है कि वन महोत्सव को सफल बनाने के लिए जिम्मेदारी के भाव को और प्रमाणिक बनाना होगा।

वन संरक्षण के महत्व को देखते हुए हर वर्ष जुलाई के प्रथम सप्ताह में वनों के प्रति जागरूकता तथा पर्यावरण एवं वनों को बचाने के लिए “वन महोत्सव” मनाया जाता है। इसके अंतर्गत पूरे देश में वृक्षारोपण अभियान चलाया जाता है। सन 1950 में खाद्य और कृषि मंत्री कन्हैयालाल मानिकलाल मुंशी द्वारा राष्ट्रीय गतिविधि में वन महोत्सव को शामिल किया गया।

उन्होंने देखा कि भारतवर्ष में पेड़ों की कटाई बहुत ज्यादा हो रही है। इसे देखकर काफी चिंतित हुए। लोगों के बीच में वनों के महत्व संबंधी जागरूकता लाने के लिए उन्होंने सामूहिक वृक्षारोपण कार्यक्रम आयोजित करने का निर्णय लिया, जिसके द्वारा लोगों में जंगलों के संरक्षण और नए पेड़ों के रोपण की आवश्यकता के बारे में सोच विकसित की जा सकें।

वन महोत्सव मनाने के लिए जुलाई के महीने को चुना गया क्योंकि इसी माह से वर्षा ऋतु की भी शुरुआत होती है और इस समय पेड़ लगाने पर उनकी उत्तरजीविता की पूरी संभावना रहती है। वन प्राकृतिक संपत्ति है और पेड़ों के साथ हमारे जीवन का काफी गहरा रिश्ता है द्य सदियों से पेड़ हमें प्राणवायु, फल,फूल, औषधि और छाया देते आए हैं और बदले में कुछ नहीं मांगते हैं। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि वृक्षों के संरक्षण कीदिशा में काम करने की बजाय मनुष्य अपने क्रियाकलापों द्वारा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से उन्हें नुकसान पहुंचा रहे हैं।

औद्योगिक विकास और मानवीय स्वार्थों की पूर्ति के लिए प्रतिदिन वनों को नष्ट किया जा रहा है। बढ़ती आबादी और उसकी आवश्यकता की पूर्ति हेतु वनों की बलि चढ़ाई जा रही है। पृथ्वी को पारिस्थितिकी संतुलन को बनाए रखनेएवं ऑक्सीजन प्रदान करने में वृक्षों और जंगलों की महत्वपूर्ण भूमिका है। उपरोक्त के साथ पानी ,मिट्टी का संरक्षण करते हैं, सूखे को कम करते हैं, मिट्टी का कटाव व प्रदूषण को रोकते हैं, वन्य जीवन को आलंबन प्रदान करते हैं।

वृक्षों से हमें कई प्रकार की शिक्षा मिलती है, जैसे कि हम जानते हैं कि वृक्ष अपने फलों को स्वयं नहीं खाता है, इससे हमें परोपकार की भावना तथा जैसे की हम सभी देखते हैं कि वृक्ष जितना अधिक फलों से लदा होता है, उतना ही झुका होता है, जिससे विनम्रता की शिक्षा मिलती है। ग्रीष्म ऋतु के पश्चात वर्षा ऋतु के आने पर सभी वृक्ष हरे-भरे दिखाई देते हैं। यहां तक कि कई वृक्ष जो सूखे दिखाई देते हैं, पुनः हरे हो जाते हैं, जिससे कि जीवन में आशा का संचार होता है और जीवन में धैर्य और साहस रखने की प्रेरणा मिलती है।

भारतीय संस्कृति में वन स्वास्थ्य एवं पर्यावरण के प्रमुख घटक के रूप में जाने जाते हैं। हमारा देश वन संपदा के मामले में प्राचीन काल संपन्न रहा है लेकिन समय बीतने के साथ-साथ औद्योगिक विकास की चाह या आवश्यकता ने वनों को बड़े पैमाने पर क्षति पहुंचाई है। इसका परिणाम यह है कि कई फलदार एवं औषधीय पेड़- पौधे केवल किस्से कहानियों की बातें बनकर रह गए हैं। वनों की कटाई सीधे तौर पर पर्यावरण को प्रभावित कर रही है।

इन सबके बावजूद बावजूद दुनिया के अधिकांश देशों में वनों का क्षेत्रफल लगातार बड़ी तेजी से कम होता जा रहा है। यह बात भी बड़ी विचित्र है कि वनों की गोद में विकसित हुई सभ्यता में ही आज वनों की इस तरह से उपेक्षा हो रही है। साथ ही जिन वनों के साथ मानव सभ्यता का अस्तित्व जुड़ा हुआ है, सभी इसके ओर से मुंह मोड़ कर बैठे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि सभी सरकारें डब्ल्यूडब्ल्यूएफ आदि गैर-लाभकारी संगठन वनों की कटाई से लड़ने औरजन जागरूकता बढ़ाने के लिए काफी मेहनत कर रहे हैं, लेकिन वास्तविकता में हम सभी को अपनी ओर से ही पूर्णयोगदान देना होगा। सभी को इस ओर ध्यान देना होगा कि सन 1950 से हर वर्ष यह महोत्सव धूमधाम से मनाने के बावजूद भी पेड़ों की संख्या में लगातार कमी क्यों आई? और पर्यावरण का स्तर क्यों चिंतनीय होता जा रहा है? ऐसालगता है कि हम अभी पर्यावरण एवं वनों के संरक्षण के लिए पूर्णतया जागरूक नहीं हुए हैं। पेड़ों का महत्व समझते हुए हमें नए लगाए गए वृक्षों की देखभाल एवं पुराने वृक्षों के संरक्षण के बारे में पूर्ण मनोयोग से प्रयास करने होंगे, ताकि हम अपनी भावी पीढ़ी को वह स्वच्छ पर्यावरण एवं हरी- भरी धरती सौंप सके, जो हमारे पूर्वजों ने हमें सौंपी थी।

इसके साथ ही हमें यह समझना होगा और यह जिम्मेदारी पूर्णता हमारी ही है ना की किसी सरकार और संगठन की।

लेखक श्रीदेव सुमन उत्तराखंड विश्वविद्यालय में जंतु विज्ञान की प्राध्यापिका हैं।

Tirth Chetna

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *