वैदिक संस्कृति और पर्यावरण संरक्षण

डा. गिरजा प्रसाद
पर्यावरण शब्द का निर्माण दो शब्दों से मिल कर हुआ है। परिआवरण । परि का तात्पर्य जो हमारे चारों ओर है और आवरण का तात्पर्य जो घेरा हुआ अर्थात् पर्यावरण का सीधा-सरल अर्थ है प्रकृति का आवरण ‘परितः आवरणं पर्यावरणम्’ प्राणी जगत को चारों ओर से ढकने वाला प्राकृति तत्व, जिनका हम प्रत्यक्षतः एवं अप्रत्यक्षतः, जाने या अनजाने उपभोग करते हैं तथा जिनसे हमारी भौतिक, आत्मिक एवं मानसिक चेतना प्रवाहित एवं प्रभावित होती है, पर्यावरण है।
वैदिक संस्कृति का प्रकृति से अटूट सम्बन्ध है। वैदिक संस्कृति के सम्पूर्ण क्रिया-कलाप प्रकृति से पूर्णतःआबद्ध है। वेदों में प्रकृति संरक्षण अर्थात् पर्यावरण संरक्षण से सम्बंधित अनेक सूक्त हैं। वेदों में दो प्रकार के पर्यावरण को शुद्ध रखने पर बल दिया गया है, भौतिक एवं आन्तरिक । प्रकृति के पंचमहाभूत- क्षिति, जल, पावक, गगन व समीर भौतिक पर्यावरण का निर्माण करते हैं।
वेदों में मूलतः इन पंचमहाभूतों को ही दैवीय शक्ति के रूप में स्वीकार किया गया है। आन्तरिक पर्यावरण का निर्माण मानव मन, बुद्धि एवं अहं से होता है। इसीलिए गीता में भगवान कृष्ण ने प्रकृति के पाँच तत्वों के स्थान पर आठ तत्वों का उल्लेख किया है – ‘‘भूमिरापोनलो वायुः खं मनो बुद्धि रेवच। अहंकार इतीयं में भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।’’ (श्रीमद्भागवद् गीता अ- ७/४)। आधुनिक पर्यावरण विज्ञान केवल बाह्य पर्यावरण शु्द्धि पर केन्द्रित है। वेद आन्तरिक पर्यावरण जैसे मन एवं आत्मा की शुद्धि से पर्यावरण के संरक्षण की अवधारणा को स्पष्ट करता है।
भारतीय संस्कृति का मूल हि प्रकृति है। इसीलिए हमारी संस्कृति में पर्व, व्रत व त्योहार ऐसी विशिष्ट तिथियों को किसी न किसी विशेष पौधे या वृक्ष की पूजा के साथ समाहित किया गया है। उदाहरण के लिए हिन्दू नव वर्ष चौत्र शुक्ल र्प्तिपदा को मनाया जाना, क्योंकि समस्त वृक्ष व लताएँ शरद काल कि शुष्कता एवं नीरसता को त्याग कर चौत्र मास मे पल्लवित व पुष्पित होने लगती है। इसी समय लोग नवीन सृजनता कि शक्ति के रूप में शक्ति के प्रतीक माँ दुर्गे के नौ रुपौं का बासन्तीय नवरात्रि पर्व में जौ (Barley, Hordeum vulgare) के पौधों को उगा कर उनका पूजन करते।
इसी प्रकार सोमवती अमावस्या (सोमवार को अमावस्या तिथि) के दिन पीपल वृक्ष का (मूलतो ब्रह्मरूपाय मध्यतो विष्णुरूपिणे। अग्रतरू शिवरूपाय वृक्षराजाय ते नमरू।। आयुरू प्रजां धनं धान्यं सौभाग्यं सर्वसम्पदम्। देहि देव महावृक्ष त्वामहं शरणं गतरू।।), तथा वटसावित्री व्रत के दिन वटवृक्ष का पूजन (अवैधव्यं च सौभाग्यं देहि त्वं मम सुव्रते. यथा शाखाप्रशाखाभिर्वृद्धोऽसि त्वं महीतले) मंत्रो के साथ किया जाता है।
पीपल व वटवृक्ष के अतिरिक्त भारतीय संस्कृति मे अनेकानेक वृक्ष, पौधों व लताओं की भी बड़ी मान्यता है। ज्योतिष शास्त्र में नौ ग्रहों (सूर्य-बेल, चंद्रमादृपलाश, मंगल-खैर या खदिर, बुध-अपामार्ग, गुरु-पीपल, शुक्र-गूलर, शनि -शमी/ मदार, राहू-दूर्वा/चन्दन तथा केतु- कुशा) बारह राशि के स्वामी ग्रहों एवं सत्ताईस नक्षत्रों (अश्विनी-कुचला, भरणी-आँवला, कृतिका-गूलर, रोहिणी- जामुन, मृगशिरा-खदिर, आद्रादृशीशम, पुनर्वसुदृबाँस, पुष्यदृपीपल, अश्लेषादृनागकेशर, मघादृबरगद, पूर्वा फाल्गुनी-पलाश, उत्तरा फाल्गुनी-पाठा, हस्ता-रीठा, चित्रा-बिल्वपत्र, स्वाति-अर्जुन, विशाखा-कटाई, अनुराधा-मौलश्री, ज्येष्ठा -चीड़, मूल-साल, पूर्वाषाढ़ा -जलवेतस, उत्तराषाढ़ा-कटहल, श्रवणदृमदार, घनिष्ठा-शमी, शतभिषा-कदंब, पूर्वा भाद्रपद-आम, उत्तरा भाद्रपद-नीम तथा रेवती-महुआ का प्रमुख रूप से उल्लेख है।
ज्योतिष शास्त्रानुसार हमारे शरीर में जो सूक्ष्मचक्र, ग्रंथियां व मुख्य ऊर्जाकेंद्र हैं, इनके माध्यम से इन ग्रहों व नक्षत्रों की ऊर्जा हमारे शरीर मे प्रवेश करती है। जिस तरह इन ग्रहों व नक्षत्रों के विशेष मंत्र, रत्न व रंग होते हैं, उसी तरह इन ग्रहों व नक्षत्रों से संबन्धित वृक्ष भी धरती पर मौजूद हैं। हमारे ऋषि मुनियों को पेड़ पोधों के महत्व का ज्ञान सेकड़ों वर्ष पहले हो गया था। साथ ही उन्हे ये भी आभास था की आम मानस को इनके बहुतायत मे होने के कारण इनके महत्व, आवश्यकता एवं संरक्षण के लिए प्रेरित करना आसान नही होगा अतरू उन्होने तत्स्मयानुसार पेड़ पोधों के वैज्ञानिक महत्व पर बल न देकर इनके धार्मिक महत्व पर बल देते हुये प्रकृति के संरक्षण के लिये पेड़ पोधों के धार्मिक महत्व के साथ सम्बंध स्थपित कर जन मानस की भावना को प्रकृति के संरक्षण के लिये प्रेरित किया।
लेखक गवर्नमेंट कॉलेज में बॉटनी के प्राध्यापक हैं।