राज्य स्थापना दिवस : देवभूमि उत्तराखंड में अब पहले जैसा उत्साह नहीं
सुदीप पंचभैया।
उत्तराखंड के मूल निवासियों में हताशा और निराशा तेजी से बढ़ रही है। ये चिंताजनक बात है। व्यवस्था को इस पर गौर करना चाहिए। ये कहने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है कि इससे अच्छा तो उत्तर प्रदेश ही ठीक था।
उत्तराखंड राज्य राजनीतिक दांव पेंच से नहीं बना। ये राज्य आम जन के संघर्ष और करीब चार दर्जन शहादतों का प्रतिफल है। राज्य आंदोलन के दौरान लोगों के आंखों में अपने राज्य को लेकर जो सपने थे उनका टूटना नौ नवंबर 2000 को ही शुरू हो गया था।
उस दिन ऐसा क्या हुआ था अब बताने की जरूरत नहीं है। लोग 24 सालों में उससे बड़े-बड़े घावों को झेल चुके हैं। व्यवस्था ने बड़े तरीके से राज्य के लोगों के साथ राजनीतिक छल किया। लोग जाने अनजाने इस छल में शामिल हो गए। छल कपट की जानकारी होने के बावजूद लोगों ने राजनीतिक तौर पर स्वयं को मजबूत नहीं किया।
दिल्ली से नियंत्रित राज्य की राजनीतिक व्यवस्था ने दिल्ली के इशारों पर ही राज्य निर्माण की मूल अवधारणा को अच्छे से कूचल दिया और ये क्रम अभी भी जारी है। मूल निवासी स्थायी निवासी बन गए। ये उत्तराखंड राज्य के लोगों के साथ सबसे बड़ा धोखा है।
अतिक्रमण के मामले में अध्यादेश के माध्यम से हाईकोर्ट के निर्णय को निष्प्रभावी करने वाली व्यवस्था मूल निवास के मामले में ऐसा कोई रास्ता निकालने में रूचि नहीं दिखा रही है। मूल निवास के आलावा राज्य के प्राकृतिक संसाधनों की लूट खूब हुई और हो रही है। ऐसा लग रहा है कि पहाड़ के लोगों को भूमिहीन बनाने की प्रतिस्पर्द्धा चल रही है।
डबल इंजन भी यूपी के साथ परिसंपत्तियों के मामले को नहीं सुलझा पा रहा है। यूपी ने हरिद्वार के अलकनंदा भवन को तब छोड़ा जब उत्तराखंड सरकार ने यूपी को उतनी ही जमीन दी। तमाम सिंचाई नहरों के हेड के मामले अभी ज्यों के त्यों हैं। इसके अलावा अंदरखाने यूपी समेत अन्य राज्यों के लोग उत्तराखंड के तमाम कार्यों में कैसे हावी हैं।
बाहरी राज्यों के बड़े ठेकेदार और लॉबिस्ट यहां के बड़े-बड़े पदधारियों के राजदार बन गए हैं। इसे देखा और महसूस किया जा सकता है। राज्य का पर्वतीय क्षेत्र हर स्तर पर उपेक्षा का शिकार है। यहां हताशा और निराशा का माहौल है। गांव के गांवों के बांझा पड़ना इस बात का प्रमाण है। चंट चकड़ैतों के माध्यम से उत्साह पैदा करने का प्रयास हो रहे हैं। तमाम निधियों के भंजक उक्त चंट चकड़ैत पर्वतीय क्षेत्रों की असली तस्वीर सामने नहीं आने देते।
हालात यहां तक हो गए हैं कि अब हताशा और निराशा के भाव ने अविश्वास का माहौल भी राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में बना दिया है। राज्य बनने से पहले पर्वतीय क्षेत्र में जो सहकार दिखता था वो अब सिरे से गायब है। हालात कुछ कुछ ऐसे हो गए हैं कि सभी लग्यंा जुगाड़ में जैसे हो गए हैं। इसका लाभ किसी मिल रहा है ये जनमानस अच्छे से जान रहा है। मगर, रिएक्ट नहीं कर रहा है। लोगों की इस चुप्पी से प्यारा उत्तराखंड अब क्या हो गया है।
सरकारें शिक्षक/ कर्मचारियों, डॉक्टर के पहाड़ न चढ़ने का बहाना बनाती है। सच ये है कि सरकार भी पहाड़ नहीं चढ़ना चाहती। यदि सरकार गैरसैंण में बैठने लगे तो कौन सा डाक्टर पहाड़ के हॉस्पिटल में नहीं जाएगा। सुदूर क्षेत्रों में भी शिक्षक जाने से मना नहीं कर पाएगा।
विधायक, मंत्री, सांसद, वरिष्ठ नौकरशाह स्वयं पहाड़ नहीं चढ़ना चाहते और तोहमत छोटे कर्मचारियों पर मढ़ी जा रही है। इस बात को राज्य का जनमानस अच्छे से समझ रहा है। नेताओं का देहरादून अच्छा लगता है कि तो आम लोगों को क्यों नहीं लगेगा।