क्या हैं हिमालय दिवस मनाने के मन्तव्य?

क्या हैं हिमालय दिवस मनाने के मन्तव्य?
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प्रो. विश्वम्भर प्रसाद सती।

गत वर्षों की भांति इस वर्ष भी हिमालय दिवस मनाया जा रहा है। और इस बार तो एक सप्ताह तक हिमालय दिवस मनाया जायेगा। संगोष्ठियाँ होंगी, भाषण होंगे, और अखबार के मुख पृष्ठ पर समाचार छपेंगे। लोग एक दूसरे की तारीफ करेंगे और स्वादिष्ट भोजन परोसा जायेगा। और फिर वही ढाक के तीन पात। सालभर फिर हिमालय हाशिये पर आ जायेगा। परंतु हिमालय के सरोकारों का क्या? वो तो प्रत्येक वर्ष त्रासदी झेल रहा है। और उसकी कहानी भी इस तरह की है कि कहीं बहुलता तो कहीं विपन्नता। और इन सब के बीच, हिमालय कराह रहा है।

यहां के लोग आज भी दो जून की रोटी के लिए तरस रहे हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य की तो बात ही नहीं करनी। सरकारें आईं गईं, विकास की बहुत बातें हुईं, पर हिमालय आज भी अंतिम पंक्ति पर खड़ा अपने अस्तित्व को कराह रहा है। कुछ दिनों पूर्व मैं टौंस नदी घाटी के भ्रमण पर गया। यहाँ का एक गाँव है ओसला। सुदूर, हरी की दून ट्रेकिंग मार्ग पर स्थित इस गाँव में समस्याओं का अंबार लगा हुआ है। वर्षात के दिनों में जब सड़के टूट जाती हैं और पुल बह जाते हैं तब इस गाँव तक पहुँचने के लिए लगभग 40 किमी पैदल चलना पड़ता है।

इस गाँव में ना तो पढ़ने के लिए स्कूल है और ना ही कोई स्वास्थ्य केंद्र। बैंक और पोस्ट ऑफिस तो दूर की दूर की कौड़ी हैं। गाँव जाने के लिए सुपिन हदी पर लकड़ी का एक जर्जर पुल है जो गाँव वालों द्वारा बनाया गया है और हर वर्ष इसकी मरम्मत की जाती है। चित्ररू विशालकाय नदी को पार करने के लिए बना जर्जर पुल यहाँ की जलवायु आलू की खेती के लिए उत्तम है परंतु बाज़ार ना होने के कारण लोग आलू की खेती कम करते हैं। भारत के प्रथम गाँव माना की तरह यह भी टौंस नदी घाटी का प्रथम गाँव है। परंतु विकास की दौड़ में यह गाँव मीलों पीछे है। और मैं कहूँगा कि यहाँ के लोग आज भी सत्रहवीं सदी में रह रहे
हैं, अति संयोक्ति नहीं होगी।

ओसला गाँव की तरह हिमालय में अनेक गाँव हैं जो आज भी विकास की बाट जोट रहे हैं। दूसरी तरफ विकास के अनेक कार्य ऐसे हैं जो हिमालय के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं। जल विद्युत परियोजनाओं का जाल बिछा हुआ है। ऐसा होना भी चाहिए। परंतु ये विद्युत परियोजनाएं कहां पर बनें, कैसे बनें, इनका आकार कितना बड़ा हो, ये सोचनीय विषय है। उचित नीति निर्धारण के साथ-साथ स्थानीय लोगों की संतुष्टि एवं भागीदारी भी अनिवार्य और निश्चित हो। इन सबसे बड़ी बात यह है कि उचित तकनीक का उपयोग हो।

इसी तरह अन्य विकास परियोजनाओं का भी निर्धारण हो। अन्यथा ये परियोजनाएं आधी अधूरी रह जाएंगी और इनकी उपादेयता नगण्य हो जाएगी। दरअसल, हिमालय दुनिया की सबसे ऊँची और नवीन पर्वत श्रंखला है। इसी लिए इसे गिरिराज की संज्ञा भी दी जाती है। इसका स्वरूप जितना बड़ा है, उतना ही यह नाजुक भी है, क्योंकि इसका निर्माण विध्वंसकारी शक्तियों से हुआ है।

हिमालय की रचना टर्शियरी काल में आज से लगभग 72 लाख वर्ष पूर्व टेथिस सागर में संपीड़न और संकुचन के कारण हुई, ऐसी अवधारणा है। चूंकि हिमालय नवीन मोड़दार पर्वत श्रेणी में आता है तथा इसका निर्माण अवसाद के जमाव के कारण हुआ है, इसलिए हिमालय अत्यधिक नाजुक है। मानव द्वारा निर्मित क्रियाकलापों तथा जलवायु परिवर्तन के कारण, हिमालय और अधिक नाजुक हो जाता है।

हिमालय के अनेक प्राकृतिक और सांस्कृतिक महत्व हैं। यह पर्वत पाँच देशों दृ भारत, पाकिस्तान, नेपाल, तिब्बत, तथा बांग्लादेश के लगभग 600 मिलियन जनसंख्या को आजीविका प्रदान करता है। यहाँ की भू-स्थलाकृतियाँ, विविध जलवायु, प्राकृतिक वनस्पतियाँ, मृदा, स्वच्छ जल, और भोले-भाले लोग, विश्वभर में प्रसिद्ध हैं। विश्व की तीन विशाल नदी तंत्र दृ सिंधु, गंगा, तथा ब्रह्मपुत्र की उद्गम स्थली भी हिमालय ही है।

हिमालय विश्व की सबसे बड़े उपजाऊ नदी घाटी के मैदान का निर्माण करता है तथा लाखों लोगों का भरण-पोषण भी करता है। ये नदी घाटियाँ विश्व की जनसंख्या के सघन क्षेत्र हैं। सांस्कृतिक रूप से समृद्ध हिमालय में अनेक तीर्थ स्थल हैं, जो विश्व प्रसिद्ध हैं। यह ऋषियों की तप स्थली और भगवान शिव का निवास स्थान है। और इसे ईश्वर की संज्ञा दी गई है। भगवान कृष्ण जब अर्जुन को अपने विभिन्न स्वरूपों का विवरण प्रस्तुत कर रहे थे, तो उन्होंने कहा स्थिरोनाम नामच हिमालयः। हे अर्जुन, स्थिर रहने वालों में मैं हिमालय हूं। इसी तरह, किसी ने पाश्चात्य ज्ञान के पुरोधा मैक्समुलर से प्रश्न किया था कि दुनिया का सबसे पवित्र स्थल कौन सा है। तब मैक्समुलर ने अपनी छड़ी ग्लोब पर घुमाते हुए हिमालय की ओर इंगित कर कहा था कि दुनिया का सबसे पवित्र स्थल हिमालय है।

इतने सारे गुणों के होते हुए भी आज हिमालय अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत है। नौ सितंबर सन 2014 को तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत ने सर्वप्रथम हिमालय दिवस मनाने की घोषणा की थी, जो कि एक उचित कदम था। हिमालय दिवस मनाना भी चाहिए। हिमालय दिवस मनाने का मन्तव्य हिमालय से संबंधित उन तमाम सरोकारों से है जो हिमालय की समृद्धि में अपना योगदान देती हैं। और हिमालय के सरोकार हिमालय की तरह ही विशालकाय हैं। परंतु हमें केवल हिमालय दिवस मनाने तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए।

हमें हिमालय के विकास के लिए एक समावेशी नीति की आवश्यकता है जो हिमालय के विकास के साथ साथ हिमालय के संरक्षण में भी अपना योगदान दे। जिस तरह हिमालय लगभग 600 मिलियन लोगों का भरण पोषण करता है, उसी तरह हर व्यक्ति का परम कर्तव्य हो जाता है कि वह भी हिमालय के निर्माण में अपना योगदान दे। दुष्यन्त कुमार की इन पंक्तियों के साथ ही मैं अपने आलेख को पूर्ण विराम देता हूँ। “हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से एक गंगा और निकलनी चाहिए। मेरे सीने में न सही, तेरे सीने में सही, हो आग मगर आग जलनी चाहिए।“

लेखक- मिजोरम विश्वविद्यालय, ऐजाल में ाूगोल और संसाधन प्रबंधन विभाग में प्रोफेसर हैं।

Tirth Chetna

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