उत्तराखंड में राष्ट्रीय दलों पर नियंत्रण की राजनीति

उत्तराखंड में राष्ट्रीय दलों पर नियंत्रण की राजनीति
Spread the love

सुदीप पंचभैया।

उत्तराखंड के मूल स्वरूप को बचाने के लिए राष्ट्रीय दलों पर नियंत्रण वाली राजनीति की जरूरत है। इसके लिए राज्य के वास्तविक मुददों को उठाने वाले युवाओं और संगठनों को प्रोत्साहित करने की जरूरत है। ताकि व्यवस्था पर मूल निवासियों का कोई दबाव समूह आकार ले सकें।

रूद्रप्रयाग विधानसभा उपचुनाव में पत्रकार त्रिभुवन चौहान ने राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को अच्छा आइना दिखाया। उन्हें और उनके समर्थन में पहुंचे बेरोजगार संघ के अध्यक्ष बॉबी पंवार को भले ही कांग्रेस की हार का जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। मगर, सच ये है कि चौहान ने भाजपा की सांसे भी अटका दी थी।

कांग्रेस ने अच्छा चुनाव लड़ा, राज्य और क्षेत्र के मुददों को मजबूती से जनता के सामने रखा। बावजूद उसे जीत हासिल नहीं हुई। इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह संगठन का मजबूत न होना है। भाजपा के पास मजबूत संगठन के साथ ही राजनीति में सब कुछ जायज का साजोसामान उपलब्ध था। बहरहाल, अब चुनाव परिणाम आ चुका है और आशा नौटियाल केदारनाथ की विधायक हैं।

चुनाव परिणाम इस दृष्टि से महत्वपूर्ण रहा कि इसमंे दोनों राष्ट्रीय राजनीतिक दलों भाजपा और कांग्रेस पर एक तरह से नियंत्रण देखा गया। निर्दलीय त्रिभुवन चौहान ने पूरे चुनाव में दोनों दलों की सांसे अटका के रखी। 20 नवंबर को मतदान के दिन तक भाजपा त्रिभुवन चौहान को कांग्रेस के लिए और कांग्रेस त्रिभुवन चौहान को भाजपा के लिए खतरा बताते रहे।

हकीकत ये है कि चौहान ने दोनों दलों के वोटों पर सेंध लगाई। इसमें भाजपा को त्रिभुवन चौहान से अधिक नुकसान हुआ। त्रिभुवन के पास संसाधन की उपलब्धता अच्छी होती तो चुनाव परिणाम कुछ और भी हो सकता था। भाजपा, कांग्रेस और चौहान को प्राप्त मतों से ऐसा स्पष्ट भी होता है।

बहरहाल, देवभूमि उत्तराखंड को ऐसी राजनीति और नेताओं की जरूरत है, जो राष्ट्रीय राजनीतिक दलों पर अंकुश लगा सकें। उत्तराखंड के मूल स्वरूप को बनाए रखने और शहीदों के सपनों को साकार करने के लिए जरूरी है कि उत्तराखंड की चुनावी राजनीति में ठेठ स्थानीयपन दिखे। स्थानीयपन का सरकार के कामकाज में भी महसूस हो। राज्य में हुए पहले तीन 2002,07 और 2012 के विधानसभा चुनाव में राज्य के लोगों ने ऐसा करके भी दिखाया। यूकेडी और निर्दलीयों के माध्यम से राज्य के लोगों ने राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की सरकारों पर अच्छा नियंत्रण रखा।

इसका लाभ भी उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों को अच्छे से मिला। हालांकि इस दौरान मूल निवास वाले मुददे की पर्वतीय क्षेत्रों से चुने गए जनप्रतिनिधियों ने एडवोकेसी नहीं की। इससे राज्य निर्माण के लिए व्यवस्था का उत्पीड़न झेलने वाला पूरा पर्वतीय क्षेत्र स्वयं का ठगा सा महसूस कर रहा है।

बहरहाल, अब राज्य के युवा राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के राज्य सरकार चलाने के रंग-ढंग को अच्छे से समझ चुके हैं। युवाओं से उम्मीद की जा रही है कि वो ऐसी राजनीति का सूत्रपात करेंगे जो राष्ट्रीय राजनीतिक दलों पर अंकुश बनाए रख सकें। बेरोजगार संघ के अध्यक्ष बॉबी पंवार ने 2027 में होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर संकेत भी दिए हैं।

तैयारी और मुददों को जनता के बीच रखा जाए तो राज्य की राजनीतिक तस्वीर बदलते देर नहीं लगेगी। राज्य के लोगों को भी इसके लिए आगे आना चाहिए। ताकि राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को एहसास हो सकें कि उत्तराखंड का वोट सिर्फ नारों और किसी के चेहरे पर नहीं मिलेगा।

अपने लिए ऐसा जनप्रतिनिधि चुने जो जितने के बाद दल का होकर न रह जाए। उत्तराखंड में फिलहाल जनप्रतिनिधि जनता के कम और राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के अधिक हैं। उत्तराखंड से जुड़े तमाम मुददों पर जनप्रतिनिधियों की चुप्पी इस बात का प्रमाण है।

विधायक और सांसदों का क्षेत्र के बजाए दलों के प्रति वफादारी दिखाने से ही उत्तराखंड के तमाम मुददे दफन हो चुके हैं। अधिसंख्य जनता विभिन्न वजहों से भी इन मुददों को भूलने भी लगी है या उन्हें विभिन्न तरीकों से राज्य के मूल मुददों से भटकाया जा रहा है। अच्छी बात ये है कि उत्तराखंड के युवा अब इस बात को समझने लगे हैं। उम्मीद की जा सकती है कि उत्तराखंड में भी कोई दबाव समूह आकार लेगा। देश में उत्तराखंड ही एक ऐसा राज्य है जहां की व्यवस्था पर मूल निवासियों का कोई दबाव समूह नहीं है।

Tirth Chetna

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *