देहरादूण वाला उत्तराखंड और पहाड़ वाला उत्तराखंड

देहरादूण वाला उत्तराखंड और पहाड़ वाला उत्तराखंड
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राज्य स्थापना दिवस नौ नवंबर पर विशेष

प्रो. मधु थपलियाल।

उत्तराखंड एक राज्य के रूप में 22 साल की यात्रा पूरी कर चुका है। राज्य का आम जन अच्छे से समझता है कि 22 में क्या से क्या हो गए और क्या होने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।

उत्तर प्रदेश में क्षेत्र की भिन्न भौगोलिक परिस्थितियों को आधार बनकार राज्य निर्माण के लिए आंदोलन हुआ। करीब चार दर्जन शहादतों और सिस्टम के असंख्य उत्पीड़न के बाद नौ नवंबर 2000 को उत्तरांचल नाम से नया राज्य का दर्जा मिला। फिर इसका नाम बदलकर उत्तराखंड किया गया।

इस तरह से नौ नवंबर 2000 से अब राज्य 22 का हो गया। भैजी उत्तराखंड को जब पूरा घूमो तब पहाड वाले उत्तराखंड में और देहरादूण वाले उत्तराखंड में भारी अंतर देखने को मिलता है। देखने से अधिक महसूस अधिक होता है और महसूस अधिक कराया भी जा रहा है।

देहरादूण वाले उत्तराखंड में सुबह से शाम तक राज्य का विकास हो रहा है। इस श्रेणी में राज्य के तमाम मैदानी क्षेत्र आते हैं। अब इसी विकास पर इतराया भी जा रहा है और इसे ही दिखाया भी जा रहा है। चारों ओर देहरादूण वाला हूं की धूम मची हुई है। हालात ऐसे बन गए है कि हर कोई सभी धाणी देहरादून गुनगुनाने को मजबूर हैं।

दूसरी ओर, पहाड वाले उत्तराखंड में हालात यूपी के दौर से बत्तर हो गए हैं। ऐसा सोचने और बोलने वालों को धड़ाम करने के लिए सड़कां के किनारे उत्तरांखंड सिंपली हैवन के बोर्ड लगे हैं। हां, सड़कों पर शहरों जैसे चंट चकड़ैती हावी हो गई है। इसी चंट चकड़ैती की भरोसे राजनीति भी चल रही है। विकास हो रहा है या नहीं आपकों यहीं से महसूस करा दिया जाएगा।

हां, ठेठ गांवों में बैठे ग्रामीण पहाड़ी राज्य का एहसास करा रहे हैं। हर किसी के पास शिकायत है। इन्हें एड्रेस करने वाला कोई नहीं है। चुनाव में भी सवाल नहीं उठ पाते। वजह सड़कों पर पसरे चंट चकड़ैत लोगों के सवालों पर कुछ और मुलम्मा चढ़ा देते हैं। परिणाम लोगों के पास मेरा सदनी यनी दिन रैना गुनगुनाने के अलावा कुछ नहीं बचता।

जिला मुख्यालयों पर भी रौनक पांच दिनी हो गई। शुक्रवार शाम से गाड़ियों का रैले की दिशा किस ओर होती है बताने की जरूरत नहीं है। छुटिटयों में यहां सन्नाटा पसर जाता है। वजह अंतर जनपदीय पलायन सीमा से पार कर गया है। डांडी कांठयूं क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वालों ने लोगों के सामने ऐसा उदाहरण भी पेश नहीं किया कि हम पहाड़ को सरसब्ज करेंगे।

ऐसा उत्तराखंड में ही हो सकता है कि पलायन पहाड़ से रोकना है और पलायन आयोग पहाड़ में नहीं बैठता। पलायन चिंता का विषय बन गया है। बस इसे रोकना प्राथमिकता नहीं है। यदि होता तो इस दिशा में ठोस प्रयास होते। घोस्ट विलेज तो दिल्ली में बैठकर भी गिने जा सकते हैं।

 

Tirth Chetna

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