सुप्प ( गढवळी कविता मनखी की कलम से
सुप्प
घ्याळ भैजी कान्ध माँ सुप्प लेकि
उकाळी उब्ब लग्यू रैंद रोज बाटू
वनी रूड़या चडकताळ घाम लग्यू
अस्यो पस्यो हुयू,तीस गळी उबयूँ।
गांव गांव जैकन सुप्प मोल भाव करदू
फगुणया काका बुल्द, न बै मैंगू लगाणु छे
ये से सस्तु बजार मा टीन मिलणु
यी त बाँस च, ये से ज्यादा उ टीकणु।
घ्याळ भैजी न ब्वाल मेरी मेंनत द्याखो
यूँ सुप्प पैथर मेरी कुटुमदरी पळणी
द्वी रुप्या मैंगू सही , इन चीज कख मिलणी
देख म्यार दीयूँ, सुप्प ल काकी चौळ फटकणी।
यी वी सुप्प छ, जौन खल्याण मा बथो लगायी
कणकील, गार, माटू बूस, यूँनि छँटायी
खल्याण बिटी नाज, सुप्प न ही सरयायी
यूँ सुप्पा मटयळ पैथर पर, जिमदरू कमायी।
काका ल ब्वाल,द्वी सुप्प मोल भाव लगा
बांस सुप्पा बणाण मा अपरि मेहनत बता
काकी ल काका कुणी ब्वाल तुम चुप करो,
यूँक पूटग पर मोल भाव करी लात ना मारो।।
अपरी मुल्क आदिम द्वी रूटी कमे ल्याल
यूँक अपर साखयूं पुरण रोजगार चली जाल
ये रोजगार बाना से, गाँव मा मनखी त राल
इन बोली कि काकी द्वी सुप्प लेकि धरी याल।
©®@ हरीश कंडवाल मनखी कलम बिटी।