नंबर गेम में उलझ रही देश की स्कूली शिक्षा

सुदीप पंचभैया ।
देश की स्कूली शिक्षा नंबर गेम में उलझ रही है। इस गेम के दुष्परिणाम भी समाज में दिखने लगे हैं। ये पूरी तरह से बाजार का कंसेप्ट है और निजी स्कूलों के माध्यम से इसने समाज में पकड़ बना ली है। व्यवस्था को इस पर गौर करना चाहिए। नंबर गेम आगे चलकर समाज के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकता है।
इन दिनों देश के अधिकांश राज्य शिक्षा बोर्ड के 10 वीं और 12 वीं के परिणाम घोषित हो रहे हैं। सीबीएसई और आईसीएसई के परिणाम भी घोषित हो चुके हैं। इसमें छात्र/छात्राओं को जिस प्रकार से अंक प्राप्त हुए हैैं वो आश्चर्य में डालते हैं। गणित/विज्ञान ही नहीं हिंदी, अंग्रेजी, इतिहास आदि विषयों में भी शत प्रतिशत अंक।
कुछ साल पूर्व तक 90 या उससे अधिक प्रतिशत अंक सीबीएसई और आईसीएसई बोर्ड में सुने और देखे जाते थे। राज्यों के बोर्ड अपने मूल्यांकन, पाठयक्रम आदि आदि पर इतराते थे। वास्तव में यूपी बोर्ड की अपनी अलग ही पहचान थी। मगर, अब राज्यों के शिक्षा बोर्ड भी पूरी तरह से नंबर गेम में फंस गए लगते हैं।
इसकी शुरूआत राज्यों द्वारा सीबीएसई पैर्टन को अडप्ट करने के साथ शुरू हुई। पहले 10 वीं में विषय कम हुए। फिर किताबों का आकार कम हुआ। किताबों में उतनी ही पाठय सामग्री रखी गई जिसका परीक्षा से सीधा-सीधा संबंध होता है। परीक्षा का पैटर्न भी बदला गया। जाहिर है मूल्यांकन पद्धति भी पूरी तरह से बदल गई।
इस तरह से राज्य गुणवत्ता शिक्षा की माला जपते-जपते नंबर गेम में उलझ गए। नंबरों का ये खेल अभिभावाकों को भी खूब रास आ रहा है। दरअसल, ये बाजार का कंसेप्ट है और कहीं न कहीं निजी स्कूलों के माध्यम से समाज तक पहुंचा। इसके दुष्परिणाम भी सामज में दिखने लगे हैं। 90 प्रतिशत से अधिक अंक लाने वाले छात्र/छात्राओं में वो जज्बा और समाज के प्रति वैसा नजरिया नहीं है जैसा 20-25 साल पूर्व के मेधावी छात्र 50/55 प्रतिशत वालों मंे दिखता था।
तब छात्र/छात्राएं मानसिक रूप से खासे मजबूत होते थे। वो प्रोब्लम को फेस कर पाते थे। रास्ता निकालना जानते थे। मैनेज करना जानते थे। अब ऐसा नहीं है। छात्र/छात्राएं किताबों से इत्तर न्यून हो रहे हैं। ये चिंता की बात है। समाज और व्यवस्था को इस पर गौर करना चाहिए।
नंबरों के इस गेम को सरकारें एक कदम आगे बढ़कर खेल रही हैं। दर्जा आठ तक नो डिटेंशन की व्यवस्था लागू है। इस व्यवस्था ने नौनिहालों को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया। अधिकांश राज्य बोर्ड परीक्षा में फेल छात्र/छात्राओं को एक और मौका देने की ओर बढ़ रहे हैं। यानि ऐसी व्यवस्था कि जिसमे छात्र/छात्राओं के फेल होने की गुंजाइश ही समाप्त हो जाए। इससे कागजों में शत प्रतिशत साक्षरता का लक्ष्य हासिल हो जाएगा।
व्यवस्था की इस मंशा का असर उच्च शिक्षा में भी दिखने लगा है। 20-25 साल पूर्व तक जिस टेंपरामेंट का बच्चा आईटीआई करने की सोचता था वो अब आसानी से बीटेक कर रहा है। ये परिवर्तन बाजार की देन है। इसमें गुणवत्ता का अभाव साफ दिखता है। अब समाज भी इस बात को महसूस करने लगा है। इंजीनियरिंग कॉलेज बंद हो रहे हैं।