कौ सुवा काथ कौ…….

कौ सुवा काथ कौ…….
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धारावाहिक उपन्यास का अंश

यह सही है कि हर नया प्रारंभ नई चेतना और उम्मीदों का पल होता है। लेकिन जैसे समुद्र मंथन में अमृत निकलता है, उसी के साथ विष भी प्रवाहित होता है। विशाल हरे घास के मैदानों में जहाँ एक ओर चहकती बुलबुल दिखाई दे जाती है वहीं दुर्दांत विषैले जीव-जंतु भी पाए जाते हैं। नदी का प्रवाह जीवन देता है, तो जीवन का अंत भी कर सकता है। एक जीवन में हमें कई जीवन जीने होते हैं। मसलन, प्रकाश के स्वप्न दिखाई देते हैं, लेकिन सामने गहरी खाइयां और गड्ढे विद्यमान होते हैं।

बुनी हुई रस्सी में जिस तरह कई मोड़ होते हैं, हिमाच्छादित पर्वतों की खूबसूरती के पीछे भी विराट गह्वर और कठिनाइयां छिपी होती हैं। दुनिया भी ठीक वैसी ही है।

बैठक में कुलपति ने नए आए हुए प्राध्यापकों के साथ मीटिंग प्रारंभ की। छलावे की तरह बुने हुए शब्द हवा में तैरने लगे। अचानक कुलपति का स्वर मध्यम होते-होते रुका, फिर लय पकड़ते हुए आत्मश्लाघा के स्वर कानों में गूंजने लगे। मैने लगभग सभी देशों की यात्रा की है। दर्जनों शोध पत्र मेरे प्रकाशित हुए हैं। बड़े-बड़े लोगों से मैं मिला हूं। इसलिए मैं आप लोगों को चेतावनी देता हूं। स्वर तीव्र हुआ, यदि कोई काम में कोताही करते पाया गया, तो उसे बख्शूंगा नहीं।

ये शब्द कानों के रास्ते दिल में जाकर दर्द के रूप में ठहर गए। वे योजनाएं, वे प्रपोजल्स, वे रिपोर्ट्स जिनकी बात होनी थी, कहीं ठिठकी खड़ी रह गईं। समायोजित हुए प्राध्यापकों और कुलपति की पहली बैठक थी, या कहें तो पहली मुठभेड़। वे लोग अपने वर्षों पुराने पदों और स्थानों को छोड़कर विश्वविद्यालय में कार्य करने हेतु छोड़ कर आए थे, एक तरह से वे जहाँ थे वहां पूर्ण स्थापित हो चुके थे तो यह धक्का उन्हें जोर का लगा।

बहरहाल, शहर अपनी गति से चल रहा था। नदी उसी तरह बह रही थी। वातावरण में ठंड की खनक बढ़ती जा रही थी। ऑटो, टैक्सी, बसें, मेट्रो दौड़ रही थीं। लोग आ-जा रहे थे। मंडियों में रेलमपेल थी। सड़कों को चौड़ा किया जा रहा था। कई पुराने वयोवद्ध और युवा पेड़ अपनी अंतिम गति को प्राप्त हो चुके थे और गलियों और चौराहों मे अपनी उपयोगिता न होने के कारण चुपचाप ठेल दिए गए आवारा बैल, कुत्ते, दूध न देने वाली गायें भूखे पेट इधर-उधर भटकते, कूड़ा चबाते, निराश्रित लोगो के साथ सारे शहर मे इधर उधर भटक रहे थे। इन्हीं के बीच शिवानी ने अभी-अभी परिसर में प्रवेश लिया था। पहाड़ की कड़कड़ाती सर्दी वाले गांव से पढ़ने के लिए उसके माता-पिता ने उसे शहर भेजा था। गांव के स्कूल में बारहवीं में वह अच्छे अंकों से पास हुई थी। विज्ञान और गणित में उसकी विशेष रुचि थी।

उन दिनों इस राज्य में इस महाविद्यालय का काफी नाम था क्योंकि वहां विद्यार्थियों का चयन आसानी से नही होता था। 8-10 वर्षों में पूरे प्रदेश मे इस महाविद्यालय की उपलब्धियां चर्चा का विषय थी। यद्यपि बाहरी कलेवर, बिल्डिंग, ढांचा बहुत शानदार नही था किन्तु जुनून की हद तक मेहनत करने वाली प्राध्यापकों की टीम ने इस संस्थान को ऊंचाइयों पर पहुंचाने का स्वप्न देखा और उसको साकार करने के लिये अनथक काम किये। फिलहाल यह एक ऐसी संस्था के रूप मे विख्यात हो गयी कि जहाँ पढ़ने के लिए विद्यार्थी लालायित रहते थे । यह जरूर था कि यहाँ प्रवेश लेने के लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा थी।

शिवानी चौहान भी अपने सपनों को लेकर यहां आई थी। उसके माता-पिता के पास पहाड़ में दो-चार नाली जमीन थी। संयुक्त परिवार था। साल के छह महीने मुश्किलों में गुजरते थे। बड़ा भाई किसी होटल में शेफ की नौकरी करता था। छोटा भाई और शिवानी पढ़ाई कर रहे थे। परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, लेकिन उनके पास सपने थे।शायद सपने टूटने के लिए होते हैं, या फिर अपने स्वरूप को बदलने के लिए। शिवानी के लिए यह शहर सपनों का आंगन था, लेकिन वह आंगन भी कई विषम परिस्थितियों से भरा हुआ था। 

प्रो. कल्पना पंत

Tirth Chetna

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