सफर हमारेः पहाड़ी क्षेत्रों का यात्रा वृतांत
एक किताब
किताबें अनमोल होती हैं। ये जीवन को बदलने, संवारने और व्यक्तित्व के विकास की गारंटी देती हैं। ये विचारों के द्वंद्व को सकारात्मक ऊर्जा में बदल देती है। इसके अंतिम पृष्ठ का भी उतना ही महत्व होता है जितने प्रथम का।
इतने रसूख को समेटे किताबें कहीं उपेक्षित हो रही है। दरअसल, इन्हें पाठक नहीं मिल रहे हैं। या कहें के मौजूदा दौर में विभिन्न वजहों से पढ़ने की प्रवृत्ति कम हो रही है। इसका असर समाज की तमाम व्यवस्थाओं पर नकारात्मक तौर पर दिख रहा है।
ऐसे में किताबों और लेखकों को प्रोत्साहित करने की जरूरत है। ताकि युवा पीढ़ी में पढ़ने की प्रवृत्ति बढे। इसको लेकर हिन्दी सप्ताहिक तीर्थ चेतना एक किताब नाम से नियमित कॉलम प्रकाशित करने जा रहा है। ये किताब की समीक्षा पर आधारित होगा। ये कॉलम रविवार को प्रकाशित होने वाले हिन्दी सप्ताहिक तीर्थ चेतना में भी प्रकाशित किया जाएगा।
रामकिशोर मेहता ।
मेरी अपनी समझ तो यह कि जिन्दगी एक यात्रा ही है और हम यात्री, यात्रा वृत्तांत उसका आँखों देखा हाल । कबीर याद आते हैं ‘तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आँखों की देखी।’ हम सच मान लेते हैं । पर क्या आँखों ने जो देखा वह सारा का सारा सच होता है । शायद नहीं ।
एक लेखक के रूप में मेरा अनुभव यह कहता कि आँखों का देखा बहुत बार पूरा सच नहीं होता। हम जब प्रूफ चेक करते हैं तो बहुत बार वह नहीं पढ़ते जो टाइप किया होता है । हम वही पढ़ जाते जो हमने सोचा होता है। इस प्रकार हम अपने लिखे की गलतियाँ नहीं पकड़ पाते । हमारे देखने की भी प्रक्रिया है। इसमें वस्तु है, प्रकाश है, आँख है और हमारा मस्तिष्क है यदि इनमें से कोई भी अवयव गड़बड़ तो हमारा देखा सही नहीं हो सकता । ऊपर से भय, भ्रम, हमारे संस्कार, अनुभव और पूर्वाग्रह हमारे देखे हुए में अनायास या सयास बहुत कुछ जोड़ देते हैं। मृग-मरीचिकाएं होती हैं । इन्हीं कारणों से लेखक का कथ्य जरूरी नहीं कि वैज्ञानिक सत्य भी हो । इस पुस्तक के पहले लेख ‘ऐ!’ इन्हीं संभावनाओं से भरा हुआ है । परन्तु चमत्कारिक धार्मिक लेखन की विधि का उपयोग करते हुए यह पाठक को पुस्तक पढ़ने की दिशा में प्रेरित करता है । शायद इसी कारण संपादक ने इसे सबसे पहले रखा है ।
पुस्तक में संकलित आलेखों/यात्रा संस्मरणों में बड़ी विविधता है । इनमें पहाडी यात्राओं वृत्तांत अधिक हैं । पहाड़ निश्चित रूप आकर्षित करते हैं। पर उन यात्राओं के लिए आदमी के ‘दीदे-गोड़े’ सलामत होने चाहिए । ‘सैर कर दुनिया की गाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहाँ/ ज़िंदगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहाँ/’ जिन्हें पढ़ते हुए महसूस होता है कि काश ये लेख उस समय मिले होते जब हम जवान थे? इन संस्मरण के केन्द्र में हिमालय है । उत्तराखण्ड और उसके आस पास का हिमालय ।
विभिन्न वनस्पतियों, इमारती लकड़ी के पेड़ों, फूलों और फलों से लदे पेड़ पौधों से आच्छादित घाटियों का हिमालय । ढलानों पर बनाए गए सीढ़ीदार खेतों पर फसल उगाता हिमालय ( बाप रे! पुरखे भी बड़े सनकी रहे होंगे हमारी तरह के ही जिन्होंने इन दुरूह पहाड़ों पर भी धान उगा लिए दृ एक नदी से दूसरी नदी की क्षेम कुशलकृले. अनिल कार्की ) । बर्फ से ढकी हुई चोटियों का हिमालय । घटते बढ़ते हिमनदों का हिमालय, उनसे निकलती हुई सैकड़ों नदियों झरनों का हिमालय। झीलों और सरोवरों का हिमालय। गहरी खाइयों और विशाल बुग्यालों का हिमालय।
विभिन्न पशुओं और पक्षियों का घर हिमालय। उगते डूबते सूर्य की रोशनी से विविध रंगों की छटा बिखेरता हिमालय। आमंत्रित करता , स्वागत करता, सावधान करता और डराता हुआ हिमालय । भू-स्खलनों और हिम-स्खलनों से, ऊँचाई से लुढ़कते पत्थरों से, बादलों के फटने और प्राकृतिक बाँधों के टूटने से आई बाढ़ों से भयभीत करता हिमालय। हिम से ढकी हुई परतों नीचे के ढकी दरारों वाला काल-मुख हिमालय; जहाँ एक छोटी सी असावधानी, फिसलन और आपको काल के गाल में समाने से कोई नहीं रोक सकता। जड़ी बूटियों का केन्द्र हिमालय।
सुना है उत्तरी हिमालय में मिलने वाली कीड़ा-जड़ी सोने से कई गुना दामों पर बिकती है। आठ हजार मीटर से अधिक ऊँचाई रखने वाले भारत नेपाल व चीन की सीमा खड़े हिमालय के शिखर और जिन पर विजय पाने के लिए जीवन को जोखिम पर लगा देने वाले पर्वत आरोहियों को वह कैसा दिखता है उसे शेखर पाठक के लेख ‘आसमान तक पहुँचे शिखर’ का एक दर्शनीय शब्द -चित्र के माध्यम से देखें – ‘शिखर 38’ कुछ बादलों से ढका था। फिर कटा-फटा पर आकर्षक ल्होत्से शिखर और फिर बर्फ से लबालब चोमोलंगमा यानी सागरमाथा यानी एवरेस्ट।
ल्होत्से और चोमोलंगमा के बीच का सबसे निचला बिन्दु जिसे साउथ कॉल भी कहा जाता है स्पष्ट था । यहीं से होकर नेपाल की ओर से जाने वाले सर्वोच्च शिखर की ओर बढ़ते है। 5.30 का समय होने वाला था मैं अपनी बायीं ओर की धार की ओर बढ़ने लगा ताकि चोमोलंगमा का पूरा चेहरा देख सकूँ और उस परिवर्तन को महसूस कर सकूँ जो रोशनी के बढ़ने के साथ हिम शिखरों पर होता रहता है// अभी तक जो हम देख रहे थे वह बर्फ की आभा थी । यह सब सूरज के बिना था 6 बजे के करीब मकालू और चोमालोंजो शिखरों पर हल्का पीलापन आया । इनका हम उत्तरी पूर्वी देख रहे थे । फिर ल्होत्से और चोमोलंगमा जिनका पूर्वी चेहरा हमारे सामने था में पीलापन आया।
यह कब हल्का सुनहरा, जरा तेज गुलाबी फिर कब और तेज होकर शुभ्र चमक में बदल गया इस प्रक्रिया को हम पकड़ ही नहीं पाए । कैमरा खटखट करते रहे देखते रहे । सच बात यह थी कि जो हमारी आँख से मन में भरता जा रहा था वह कैमरा पकड़ नहीं पा रहा था। हमने शिखरों से सोना बहते हुए देखा । फिर चाँदी थिरते हुए देखा । सूरज की रोशनी प्रकृति के किस घटक से कैसे बतियाती है हम देख रहे थे ।)
साक्षात नैसर्ग का सुख उठाने को आतुर सैलानियों के आकर्षण हिमालय इस पुस्तक में संकलित लेखों के केन्द्र में है । सुविधा जीवी सैलानियों के लिए भी इस किताब में हिमालय के बारे बहुत कुछ ऐसा जिसे पढ़ कर वे अपनी योजना बना सकते हैं। हिमालय ट्रेकर्स के लिए चुनौती से भरा आकर्षण भी है।
हिमालय के इस क्षेत्र में जीवन की कठिनाइयों और यथा गरीबी, और रोजगार, स्वास्थ्य सुविधाओं एवं शिक्षा सुविधाओं का अभाव वहाँ से हो रहे पलायन का कारण है। इसका भी जायका इस पुस्तक में है । इनके लेखकों की भाषा में लोक गीतों, कहावतों और स्थानीय शब्दों का प्रयोग है। बावजूद गरीबी के यहाँ का नागरिक, ईमानदार, मेहनतकश,( सड़कें/ वे बनाते रहेंगे उन्हें/ बिना उन पर चले/ बिना कुछ कहे /उन सरल हृदय अनपढ़, असभ्यों को नहीं / हमारी सभ्यता को होगी / सड़कों की जरूरत/ बर्बरता की तरफ जाने के लिए / और बर्बरों को भी/ सभ्यताओं की तरफ आने के लिए -शिरीष कुमार मौर्य की कविता ‘गेंगमेट’- अनिल कार्की के आलेख में ) और सुसंस्कृत एवं साहसी और जिजीविषा भरे है, मातृ भूमि के लिए जान देना जानता है । अपनी सामर्थ्य से बाहर जाकर अतिथि-सत्कार के लिए जाना जाता है । इस क्षेत्र में पर्यटन का स्वर्ग होने की पूरी संभावनाएं हैं।
इस संकलन में कई लेख यूरोप की यात्राओं के हैं । शिवप्रसाद जोशी का लेख ‘और मैं हूँ दृ हम के झुरमुट से घिरा हुआ’ एक अलग तरह से लिखा हुआ है । इसमें लेखक अपने किए धरे को एक करता और भोक्ता की दृष्टि से नहीं देखता वह बस एक दृष्टा की भूमिका है। वह अपने को एक अकेलेपन और अपरिचय की स्थिति में पाता है । वह जर्मन देश के वॉन नगर में है । वहां की एक नदी है राइन । लेखक के अंतर्मन में कहीं देहरादून बसा है । राइन पर माँ के गाँव की नदी भागीरथी और पिता के गाँव की भिलांगना की छाया है । (बॉन) जर्मनी के एकीकरण के बाद बर्लिन से ईर्ष्या करता हुआ। जलता हुआ। यदि राइन नदी न होती और बीटोफन न होता , बगीचे न होते , बच्चे न होते तो बॉन क्या होता ? बॉन का बड़ा ही आत्मीय वर्णन है उनके इस लेख में । यहाँ उनकी भाषा बड़ी काव्यात्मक है । बर्लिन सहित जर्मन के और दूसरे भू भागों का वर्णन भी है इसमें और साथ ही पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के लोगों की मानसिकता के अंतर को दर्शाया गया है।
ब्रिटेन अपने लेखकों का कितना आदर करता है यह इस बात से जाना कि वहाँ के नगर, गाँव अपने लेखकों के नाम से जाने जाते हैं। जीतेन्द्र शर्मा के लेख का शीर्षक ही है ‘विलियम वर्ड्सवर्थ के गाँव में’। यूरोप की यात्रा करने वाले सैलानियों के लिए चन्द्रनाथ मिश्र का लेख ‘मेरी यूरोप यात्रा’ एक गाइड का काम करेगा । एम्स्टर्डम के सौंदर्य का विषद वर्णन है शालिनी जोशी के लेख ‘एक दिन एम्स्टर्डम’ में।
‘टूरिज्म नहीं, सोशल टूरिज्म’ में असगर वजाहत का कथन ”ऐसी जगहों और देशों में घूमना जहाँ आमतौर से लोग नहीं जाते बहुत रोचक हो सकता है। मेरी हमेशा यह कोशिश होती कि मैं वह देखूँ जो लोग नहीं देखते । मतलब यह की लोगों को जीवन देखने की अपेक्षा इमारतें देखने ज्यादा दिलचस्पी होती है परन्तु मेरी दिलचस्पी दिलचस्प लोगों को देखने में है। समाजों को देखने में है और यह मुझे ज्यादा रोचक लगता है। कभी कभी कुछ ऐसा दिखाई पड़ता है जिसकी कल्पना करना कठिन है।
चन्द्रा बी. रसायली ने मिस्र यात्रा एक विशेष उद्देश्य की थी । उनके अनुसार ” मैं ध्यान के सिलसिले में पिरामिड स्प्रिच्युल सोसाइटी ऑफ इण्डिया जुड़ा और उनके द्वारा सिखाए गए अनापानसती योग ध्यान प्रक्रिया सीखी और उस पर अमल किया । मुझे ध्यान से अपूर्व अनुभव हुए और लगा ध्यान प्रक्रिया शांति और आनन्द का सृजन करती है। ………ध्यान अगर पिरामिड के अंदर किया जाए तो विशेष लाभ की बात की जाती है ।………..मुझे प्रतीक्षा थी कि पिरामिड के अन्दर ध्यान करने से मुझे विशेष अनुभव होंगे; मगर ऐसा कुछ हुआ नहीं ।
एक बिलकुल अलग अनुभव था डा. राजेश पाल का ‘अंटार्कटिका वैज्ञानिक यात्रा’ का वृत्तांत। यह एक वैज्ञानिक की डायरी है। जिसमें यात्रा के अतिरिक्त और बहुत कुछ है जानने के लिए । इसके बारे में बहुत अधिक अन्यत्र पढ़ने को नहीं मिलता । ऐसी यात्रा वृत्तांत हमारे स्कूलों के कैरीकुलम में पढ़ाई जानी चाहिए । इस पुस्तक का संपादन कुछ ऐसा है कि पाठक चाहे शुरू से पढ़े या अन्त से वह इसे अधूरा नहीं छोड़ सकता । संपादक प्रबोध उनियाल को बधाई। इस क्षेत्र में अथाह संभावनाएँ हैं जिनपर खास कर विराट हिमालय पर काम किया जाना शेष हैं ।