महिलाओं के विरूद्ध हिंसा और राजनीति
सुदीप पंचभैया।
आधी आबादी यानि महिलाओं के खिलाफ होने वाली तमाम प्रकार की हिंसा और इस पर सुविधानुसार होने वाली राजनीति निंदनीय है। देश मंे महिलाओं के विरूद्ध होने वाली हिंसा पर बहुस्वर, बहुविचार की राजनीति जाने अनजाने महिलाओं के प्रति विकृत मनस्थिति वालांे की मददगार साबित होते हैं।
इन दिनों देश में कोलकाता के आरजे कर मेडिकल कॉलेज की प्रशिक्षु डाक्टर के साथ हुए घृणित कृत्य और हत्या का मामला चर्चा में हैं। देश भर के मेडिकल प्रोफेशनल इसके विरोध में सड़कों पर हैं। देश का आमजन इसके विरोध में है। सभ्य समाज में ये स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। समाज को महिलाओं के खिलाफ हिंसा करने वालों के विरोध में ऐसे ही खड़ा होना चाहिए।
कोलकाता में प्रशिक्षु डाक्टर के साथ जो कुछ हुआ देश के अन्य क्षेत्रों में भी महिलाओं के साथ ऐसी घिनौनी हरकतें अक्सर चर्चा में रहती हैं। उत्तराखंड का अंकिता हत्या मामले में भी लोग सड़कों पर उतरे। अन्य राज्यों में भी महिला हिंसा से जुड़े तमाम मामले हाल के दिनों में सामने आए हैं।
महिलाओं के खिलाफ हिंसा की तमाम घटनाएं सूर्खियों में रहती हैं। केंद्र से लेकर राज्य सरकारें हर घटना के बाद बड़ी-बड़ी बातें करती है। ऐसी घटनाओं की पुनर्रावृत्ति न होने की बातें भी खूब होती हैं और दावे भी। मगर, फिर से महिलाओं के खिलाफ अलग-अलग तरह से हिंसा की घटनाओं का क्रम कतई कम नहीं होता।
दरअसल, देश में महिलाओं के विरूद्ध होने वाली हिंसा को रोकने और इस पर प्रभावी अंकुश लगाने के लिए कभी भी राजनीति एक नहीं हो सकीं। किसी को कोलकाता की घटना पर हो हल्ला करना है तो किसी को यूपी की घटना बड़ी लगती है। कोई किसी दूसरी राज्य में हुई महिला हिंसा पर राजनीतिक रोटी सेंक रहा है। तो कोई दूसरे के शासनकाल में हुई घटनाओं की याद दिला रहा है।
महिलाओं के विरूद्ध होने वाली हिंसा पर बहुस्वर, बहुविचार की राजनीति जाने अनजाने महिलाओं के प्रति विकृत मनस्थिति वालांे की मददगार साबित होते हैं। देश को हिला कर रख देने वाली तमाम घटनाओं का सिंहावलोकन करें तो यही बात सामने आती है कि महिलाओं के खिलाफ हिंसा पर अल्प विराम ही लगते हैं। जबकि सामाज सिस्टम से पूर्ण विराम लगाने की उम्मीद करता है। मगर, पूर्ण विराम नहीं लगता।
हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा को धर्म और जाति की कंबल में लपेटने के प्रयास भी खूब होते हैं। यहीं वजह है महिलाओं के विरूद्ध होने वाली हिंसा पर आम लोगों का सड़कों पर दिखने वाली नाराजगी के बाद भी सिस्टम हर घटना को भुला देने वाले अंदाज में काम करता है।
सिस्टम के अंदाज ऐसा होता है कि किसी घटना पर गुस्से में दिखने वाला समाज कुछ दिन भी घटना को भूल जाता है। हां, राजनीतिज्ञ अपनी सुविधानुसार मुददों को जिंदा रखते हैं।
दरअसल, देश की राजनीतिक व्यवस्था ने कभी भी महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा पर एकजुट होकर चोट नहीं की। नहीं इस मुददे पर भी एक होती दिखी। परिणाम घटनाएं रूकने का नाम नहीं ले रही हैं। महिलाओं के विरूद्ध हिंसा का क्रम घर, वर्क प्लेस से लेकर तमाम स्तरों पर आम हो गया है।
देश के लिए ये चिंता की बात है। आम लोगों को इस पर गौर करना चाहिए। आम लोगों को इस बात पर गौर करना चाहिए कि आखिर वो वोट के माध्यम से कैसी राजनीतिक व्यवस्था को चुन रहे हैं कि जो महिलाओं के विरूद्ध होने वाली एक घटना पर लीपापोती करती है और दूसरे पर हायतौबा मचाती है। आखिर राजनीतिक व्यवस्था ऐसे मामले में एक स्वर में क्यों बात नहीं करती।
चिंता की बात ये है संवैधानिक पदों पर आसीन व्यक्तियों के स्तर से भी ऐसे मामलों में जाने अनजाने सेलेक्टिव रूख अख्तिायर करना चिंता की बात है। ये कहीं न कहीं देश के आम लोगों के भरोसे को तोड़ने वाली हरकतें हैं।