विधायक का मेयर/अध्यक्ष, जिलाध्यक्ष का पार्षद/सभासद तो फिर पार्टी का क्या
तीर्थ चेतना न्यूज
देहरादून। क्या छोटी सरकार यानि नगर निकाय राजनीतिक दलों के बड़े नेताओं की कठपुतली होती है। इन दिनों ऐसा ही कुछ सुनाई भी दे रहा है और दिख भी रहा है।
राज्य में नगर निकाय चुनाव के लिए नामांकन हो चुके हैं। विभिन्न राजनीतिक दलों से मेयर/अध्यक्ष, पार्षद/सभासद के प्रत्याशी नामांकन दाखिल कर चुके हैं। विभिन्न निकायों में दलों के बागी भी नामांकन करा चुके हैं। इस दौरान कई बातें सुनने और देखने को मिल रही है।
विभिन्न दलों के जमीनी कार्यकर्ता दो टूक अंदाज में कह रहे हैं कि मेयर/ अध्यक्ष विधायकों की पसंद का है। उन्हीं की जिस पर पार्टी ने टिकट दिया है। दलों के जिलाध्यक्षों ने भी पार्षद/सभासदी के टिकट में अपनी खूब चलाई।
कई सिटिंग पार्षदों/सभासदों के टिकट काट दिए। पार्षद/सभासद सवाल उठा रहे हैं। इसका दलों के पास कोई जवाब नहीं है। संगठन की मजबूती और अनुशासन के नाम पर ऐसे कार्यकर्ताओं को चुप्प कराया जा रहा है।
टिकट वितरण में आरोप कुछ और तरह के भी लग रहे हैं। अब सवाल उठ रहा है कि यदि विधायक की जिद से मेयर/अध्यक्ष का टिकट हुआ। जिलाध्यक्षों ने पार्षद/सभासदों के टिकट में मनमानी की तो फिर पार्टी कहां खो गई।
उक्त आरोपों से स्पष्ट हो रहा है कि छोटी सरकारें राजनीतिक दलों के बड़े नेताओं की कठपुतली की तरह काम करेंगी। इस बात को अब आम लोग भी समझने लगे हैं।
लोग सवाल उठा रहे हैं कि जो विधायक एक साल बाद अपने टिकट के लिए दौड़धूप करेगा वो छोटी सरकार के मेयर/अध्यक्ष जैसे पद के लिए मेयर तय करने में केंद्रीय भूमिका में कैसे हो सकता है। क्या राजनीतिक दलों के विधायकों के सामने अब संगठन बोलने की स्थिति में नहीं है।