उत्तराखंड में हर स्तर के चुनाव में एक जैसी बातें

सुदीप पंचभैया।
उत्तराखंड में हर स्तर के चुनाव में एक जैसी बातें हैं। चुनाव परिणाम के बाद भी एक जैसा ही माहौल होता है। जीतने वाले वादे भूल जाते हैं और हारने वाले नजर रखने की जरूरत नहीं समझते। परिणाम किसी से छिपा नहीं है।
इन दिनों उत्तराखंड में निकाय चुनाव चल रहे हैं। निकाय चुनाव में सभासद/पार्षद, मेयर/ पालिका, पंचायत अध्यक्ष सब एक तरह की बातें कर रहे हैं। यानि शहरों में विकास की गंगा बहाने का आतुर हैं। ऐसी आतुरता 2018 के निकाय चुनाव में भी दिखी थी।
2018 से आज तक शहरों में विकास की गंगा बह रही है या नहीं ये तो लोग अच्छे से जानते और समझते हैं। हां, पेयजल लाइन की लीकेज, सीवर लीकेज, सड़कों पर गडढे, अतिक्रमण शहरों की पहचान बन गई हैं।
खास बात ये है कि निकाय और त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव लड़ने वाले जनप्रतिनिधि लोगों से जो वादे करते हैं वैसे ही वादे विधानसभा और लोकसभा चुनाव लड़ने वाले नेता भी करते हैं। जिस काम को निकायों के प्रतिनिधि अपनी उपलब्धि बताते हैं उस पर विधायक जी का भी दावा होता है। कई कामों को तो सांसद भी स्वयं की उपलब्धि में गिना देते हैं।
कुल मिलाकर उत्तराखंड में किसी भी स्तर का चुनाव हो बातें एक जैसी ही होती हैं। इसे सुनकर अब लोग उकताने लगे हैं। इसका असर मतदान प्रतिशत पर दिखता है। तमाम कोशिशों के बावजूद देश भर में औसत मतदान 55 प्रतिशत के आस-पास हो पा रहा है। लोगों में ये बात घर कर रही है पांच साल के फ्रेम वाली व्यवस्था कारगर नहीं है। कारण चुनी गई व्यवस्था फिर से चुने जाने के लिए ही काम करती है।
काम का लक्ष्य सिर्फ वोट होता है। परिणाम देश, राज्य और निकायों के वास्तविक मुददे और जरूरतें पीछे छूट जाती हैं। यही वजह है कि देश में किसी भी स्तर के चुनाव में मुददे वही होते हैं। ये दिखाता है कि सजीव लोकतंत्र में ठहराव आ गया है।
व्यवस्था का सिर्फ दुबारा चुने जाने पर फोकस होने से कहीं न कहीं लोकतंत्र सिर्फ सरकार तंत्र में तब्दील हो रहा है। ऐसी व्यवस्था की ओर बढ़ रहे हैं जिसमे विपक्ष सिरे से गायब हो रहा है। जनता का इस पर गौर न करना या करते हुए भी रिएक्ट न करने से हालात और भयावह हो रहे हैं। डबल-ट्रिपल इंजन सरकार का कंसेप्ट से इसे समझा जा सकता है। केंद्र की सरकार चलाने वाला दल राज्य विधानसभा चुनाव में ये कहकर भी वोट लेने का प्रयास करते हैं कि केंद्र में हम हैं तो राज्य को विकास तेजी से होगा। राज्य को केंद्र से खूब मदद मिलेगी।
राज्य में सरकार चलाने वाले दल निकायों और त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में ऐसी प्रैक्टिस करते हैं। इससे लोगों में भ्रम फैल रहा है। हालांकि लोग राजनीति के इन पैंतरों को अच्छे से समझते हैं।
लोग समझते हैं कि केेंद्र, राज्य और निकायों के काम करने के तौर तरीके और दायरे अलग-अलग और परिभाषित हैं। वित्त की व्यवस्था भी केंद्र, राज्य और निकायों की स्पष्ट है। ऐसे में किसी भी स्तर से ऐसे दावे लोकतंत्र का मुंह चिढ़ाते हैं।