राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के हो हल्ले में खो जाते हैं जनता के मुददे
तीर्थ चेतना न्यूज
देहरादून। नगर निकाय से लेकर लोकसभा के चुनाव तक में राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के हो हल्ले में जनता के मुददे हाशिए से बाहर नहीं निकल पाते। उत्तराखंड पिछले 25 सालों से इस समस्या से दो चार हो रहा है।
इन दिनों उत्तराखंड में निकाय चुनाव का हो हल्ला है। उम्मीद थी कि इन चुनावों में नगर के मुददे हावी होेंगे। लोग प्रत्याशियों का मूल्यांकन करेंगे। ये चुनाव क्षेत्रीय मुददों के लिए प्लेटफार्म तैयार करंेगे। मगर, राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के हो हल्ले से नगर और क्षेत्रीय मुददे कहीं खो गए हैं।
राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को हर हाल में जीत चाहिए। राष्ट्रीय राजनीतिक दल प्रत्याशियांे के मूल्यांकन के बजाए दल के मूल्यांकन पर जोर देते हैं। ऐसा विधानसभा और लोकसभा के चुनाव में भी होता है। परिणाम चुनाव जीतने वाला प्रत्याशी जनता के बजाए राजनीतिक दल का होता है।
राज्य गठन के बाद तमाम ऐसे मौके आए जब जनप्रतिनिधियों ने राज्य के मुददों पर मुंह नहीं खोला। जनप्रतिनिधि अपने दल की लाइन पर रहे। उत्तराखंड मंे ये व्यवस्था पूरी तरह से हावी हो गई हैं। इससे क्षेत्रीय मुददे अब पूरी तरह से हाशिए पर चले गए हैं। जल, जंगल, जमीन का मुददो हांे या फिर मूल निवास और भू-कानून का मुददा। किसी भी चुनाव में इस पर चर्चा नहीं हो पाती।
ये सब राजनीतिक दलों के चुनाव प्रबंधन का कमाल है। राजनीतिक दल बड़ी चतुराई से चुनाव को हो हल्ले का विषय बना देते हैं। जबकि चुनाव प्रत्याशी के मूल्यांकन, क्षेत्र के मुददों पर उसकी पकड़, मुददो को लेकर उसके विचार और प्रत्याशी के पास समस्याओं का क्या समाधान है पर होना चाहिए।
देश के कई राज्यों में लोगों ने क्षेत्रीय मुददों को तवज्जो दी। ऐसे राज्यों की केंद्र में भी खूब सुनवाई होती है। उनकी क्षेत्रीयता की राजनीतिक राजनीतिक दल दुहाई देते हैं और उनके हिसाब से स्वयं को ढालते हैं। मगर, उत्तराखंड में ऐसा नहीं होता।
राज्य गठन के बाद की उत्तराखंड में राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के रंग ढंग पर गौर करें तो कई बातंे स्पष्ट हो जाएंगी। राजनीतिक दल नगर और क्षेत्रीय के मुददों को प्रमुखता दें इसके लिए जरूरी है कि लोग जागरूक हों। सवाल करना सीखें।