परफेक्ट टूरिस्ट डेस्टिनेशन है ओसला गांव
डा. किरण त्रिपाठी
देवभूमि उत्तराखंड में तमाम ऐसे गुमनाम स्थान हैं जहां, प्रकृति को पास से महसूस करने और वास्तविक पर्यटन की अपार संभावनाएं हैं। बस ऐसे स्थानों को प्रोजेक्ट करने की जरूरत है। ऐसा हुआ तो उक्त स्था परफेक्ट टूरिस्ट डेस्टिनेशन के रूप में उभर सकते हैं।
हरकी दून ट्रैक का अंतिम गांव ओसला भी कुछ ऐसा ही है। इस गांव और आस-पास के क्षेत्र मो वो सबकुछ है जो प्रकृति की व्यवस्थाओं के साथ आत्मसात करने वालों के लिए जरूरी है। यानि ऐसे पर्यटक, जो वास्तव में प्रकृति के नजारों को महसूस करना चाहते हैं। शहर की चहल -पहल से दूर शांत वातावरण के बीच 2750 मीटर की ऊंचाई में हरकीदून बुग्याल का अंतिम विश्राम स्थल ओसला गांव।
गांव की बनावट से लेकर यहां पर प्रकृति के उपहार के तौर पर नदियों, जंगल इसकी सुंदरता पर चार चांद लगाते हैं। टोंस नदी की पूर्ववर्ती दो शाखाओं में से एक सुपिन नदी जलागम में तीव्र तिरछी ढाल पर सिड़ीनुमा आकार में पसरा ओसला गांव प्रकृति के अनुरूप विद्यमान है।
इसकी तलहटी में गहरी वी आकार की घाटी में सुपिन नदी विकराल रूप से बह रही थी, चारों तरफ डालों पर छोटी-छोटी पुष्प युक्त घास अत्यधिक विहंगम दृश्य प्रस्तुत कर रही थी,व ऊपरी पहाड़ी भागों में देवदार के वृक्ष बाहें फैलाये मानो उस क्षेत्र में प्रहरी का कार्य कर रहे थे, अत्यधिक ऊंचाई का प्रभाव यहां की जलवायु पर स्पष्ट दिखाई दे रहा था, जिससे शीतकाल में अत्यधिक ठंड से बचने के लिए लोगों के अधिवास देवदार की लड़कियों से बनाए गए थे जिनसे देवदार की सुगंध महक रही थी।
मकान दो मंजिला बने हुए थे ऊपरी मंजिल में जाने के लिए लकड़ी की ही सीढ़ियां बनी हुई थी, कमरों के बाहर लकड़ी का जंगला बना हुआ था जिसके मध्य भाग में एक छोटा सा मंच बनाया गया है ,जिसमें बैठकर गांव का नजारा देखा जा सकता है।
गांव काफी सघन बसा हुआ है प्रत्येक मकान के मध्य छोटा सा आंगन संकरी गलियां बड़े-बड़े पत्थरों के बीच काली मिट्टी बारिश के पानी के साथ मिलकर फिसलने की पूरी तैयारी की हुई थी गांव की जनसंख्या पूर्ण रूप से वहां प्राप्त संसाधनों पर निर्भर थी,गांव के मध्य पानी का पंचायती धारा विद्यमान है जहां लकड़ी के बड़े-बड़े टब बने हुए हैं सारे गांव की जनता इस धारे में सामूहिक रूप से इन लकड़ी के टबो में कपड़े धुलते आपसी प्रेम भाव का उदाहरण प्रस्तुत कर रहे थे।
वेशभूषा के रूप में गांव में पाली भेड़ बकरियों से ऊन उत्पादन करके अपने-अपने परिवार के लिए कपड़े तैयार किए जाते हैं, जिसमें महिलाएं लंबे से ऊनी कोट,व बच्चे छोटे-छोटे कोट पहने अति सुंदर लग रहे थे तथा पुरुष वर्ग भी ऊनी कोट के साथ सर में हिमाचली टोपी पर जंगली पुष्पों के गुच्छे लगाए हुए थे, संस्कृति एवं भाषा में भी हिमाचली भाषा का मिलता-जुलता प्रभाव दिखाई दे रहा था।
खाद्यान्न उत्पादन पर भी जलवायु का स्पष्ट प्रभाव था जिसमें आलू, चोलाई,राजमा, मांडुवा की फसले,बड़ी-बड़ी चट्टानी टुकड़ों के मध्य छोटे -छोटे खेतों के रूप में की जा रही थी जो उत्पादन हो रहा था उससे ही वह अपना जीवन यापन कर रहे थे केवल आवश्यक सामग्री जैसे नमक.चीनी,गुड़ दियासिलाई आदि वस्तुओं की दो छोटी दुकान गांव में विद्यमान थी जिनमें घोड़े के द्वारा सामग्री पहुंचाई जाती है, अवसरचनात्मक विकास की दृष्टि से यहां पर केवल एक प्राइमरी स्कूल, विद्यमान है पूरे गांव कुछ सरकारी पानी के नल विद्यमान थे परंतु वह भी पानी विहीन थे, बिजली की लाइन भी बिछी हुई थी, परंतु उनमें करंट का अभाव था.सभी घरों में सोलर लाइट द्वारा एक-एक बल्ब जले हुए थे जो रात्रि के भोजन के बाद बंद हो जाते हैं।
गांव में बिजली की अनिश्चिता होती है बहुत कम दिनों बिजली दिखाई देती है अधिकतर अंधेरा का सन्नाटा फैला रहता है। धार्मिक दृष्टि के अंतर्गत यहां पर गांव के मध्य में सोमेश्वर भगवान जी का मंदिर, निचले भाग में काली मां का मंदिर,ऊपरी भाग में मातरी देवियों (वन देवियां ) का मंदिर स्थित है।
सोमेश्वर भगवान जी के मंदिर के कपाट सावन माह में खुलते हैं कपाट खुलने के बाद बड़े मेले का आयोजन किया जाता है काली मंदिर व मातरी देवियों के मंदिर में पशुबली प्रथा का चलन है इस गांव की संस्कृति रीति रिवाज, रहन-सहन प्राकृतिक वातावरण को देखने से लगता है कि हम किसी दूसरी दुनिया में आ गये हों, पलायन की दृष्टि से इस गांव में पलायन ना के बराबर है केवल कुछ बच्चे हाई स्कूल करने के लिए 30 किलोमीटर दूर सांकरी आते हैं।
उच्च शिक्षा हेतु मोरी,पुरोला व उत्तरकाशी में कुछ बच्चे अस्थाई रूप से रहते हैं,आर्थिक दृष्टि से भी यहां पर युवा वर्ग हरकीदून ट्रैकिंग के लिए गाइड का कार्य करते हैं,जिसमें प्रति व्यक्ति भाड़ा रुपए 12 000से 14000 लेते हैं,जिसमें उनकी पूरी व्यवस्था कैंप से लेकर खाने तक की होती है,घोड़े द्वारा भी ट्रैकिंग का कार्य किया जाता है,जिनका भाड़ा प्रति घोड़ा 2000 से 4000 होता है,इसके अतिरिक्त यहां पर लोग जड़ी बूटी उत्पादन करके भी अपनी आजीविका प्राप्त करते हैं।
गांव में कहीं-कहीं कुछ सेब के पेड़ भी लगाए जा रहे हैं यहां की जलवायु सेब के लिए अत्यधिक अनुकूल है यदि इस क्षेत्र में अधिक ऊंचाई वाले सेब के पेड़ लगाए जाए, आलू राजमा तथा चोलाई का अधिक उत्पादन करके, यातायात की सुविधाओं का विकास किया जाए, तो उद्यानिकी व पर्यटन व्यवसाय को यहां की आर्थिक आजीविका का मुख्यआधार बनाया जा सकता है।